सीताराम बहुगुणा
शादियों में नाराज़ फुफाओं के किस्से तो आपने बहुत सुने होंगे। लेकिन आज बात राजनीति के नाराज़ भाई साहब की करते हैं।
पावर, पैसा और नशा दुनिया के तमाम झगड़ों के लिए जिम्मेदार हैं। पावर वाले को और पावर, पैसे वाले को और पैसा, नशे वाले को और नशा चाहिए।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव पावर हासिल करने का एकमात्र माध्यम है। राजनीतिक लोगों में सबसे ज्यादा अदावतें चुनाव के दौरान ही होती हैं। इसको जीतने के लिए हर कोई अपनी गणित चलाता है।
भाई साहब ने अपनी गणित चलाई पर छोटे भाई ने नहीं मानी। छोटे भाई को राजनीतिक फायदा तो हो गया पर भाई साहब से अदावत भी हो गई।
अब मेले में नाराज़ भाई साहब को मनाने, पटाने के खूब जतन हो रहे हैं। भरत जी ने जैसे सिंहासन पर राम जी की खड़ाऊं रखकर राज किया था, भाई साहब को मेले में उसी के बराबर का सम्मान दिया गया है। पर भाई साहब हैं कि मानते नहीं।
और तो और, उनके चक्कर में अन्य परिवारजन भी पशोपेश में हैं कि मेले जाएं या न जाएं। वर्चुअली ही मेला देख रहे हैं। पता है कि फोटो-वीडियो सहित सबूत भाई साहब तक पहुंच गए तो शामत आ सकती है।

इसलिए दूरी ही अच्छी। वैसे परिजनों को भाई साहब मेले का आनंद कुछ दिन पूर्व एक और मेला करवाकर दिला चुके हैं। उनको पता था इंसान हैं, इच्छा तो होगी ही, इसलिए उनकी इच्छा पहले ही पूरी कर दो।
सबसे बड़े भाई के स्वागत की जोरदार तैयारी थी। लेकिन उन्होंने भी बहाना बना दिया। मेले में उनका वर्चुअली शामिल होना वैसे ही रहा जैसे हम किसी शादी में स्वयं न जाकर किसी के पास न्योता या टीका भेज देते हैं।
भाई साहब और परिवार-जनों की अनुपस्थिति से उच्च अधिकारी मेले का खूब आनंद ले रहे हैं। राजा जी आते तो उनकी ख़िदमत में लगे रहना पड़ता।
लेकिन भाई साहब की नाराज़गी ने उनको भी शाही स्वागत-सत्कार का परम आनंद दिला दिया। ऐसा आनंद नसीब वालों को ही मिलता है।
देखना है कि मेला भाई साहब को मनाने में सफल होता है या नहीं। नहीं तो इंतज़ार कीजिए अगले मेले तक।
खैर मेला अच्छा हो रहा है।इसको बेहतर करने के नवाचारी प्रयास किए गए हैं। एक बार समय निकलकर जरूर जाएं।












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