अरुण कुकसाल
देश में आज की पत्रकारिता में रवीश उस सामाजिक पक्ष की सशक्त आवाज बनकर उभरे हैं जिन्हें कहने नहीं दिया जा रहा है, सुना नहीं जा रहा है और जो अपनी बात कह नहीं पाते हैं। रवीश कुमार से असहमत हुआ जा सकता है पर असहज नहीं।
जो मित्र प्रायः उनसे असहज होते हैं वो सहजता से खुद से विचार करें तो उनके भ्रम का भार थोड़ा तो कम होगा। लगातार कोशिश करेंगे तो मन-मस्तिष्क में भरे बेकार के भार से मुक्त भी हो सकते हैं।
बहरहाल, आपसे रवीश कुमार की किताब ‘इ़श़्क में शह़र होना’ पर भी बात करने का मन है। राजकमल प्रकाशन से वर्ष 2013 में प्रकाशित यह किताब रवीश कुमार की तरह जरा हट कर है।
किताब में बिहार के मोतीहारी जिले के जितवारपुर गांव से वाया पटना होते हुए दिल्ली आने को सभी प्रवासियों के तरह रवीश ने भी ‘घर से डेरा’ की ओर जाना माना है। हम आज भी घर मतलब गांव और डेरा मतलब शहर ही मानते हैं।
आदमी जब भी किसी नई जगह में जमने की कोशिश करता है, तो दिल को आगे और दिमाग को थोड़ा पीछे रखना पंसद करता है। दिल्ली में उन शुरुवाती दिनों की रवीश जी की दरियादिल दिल्लगी ‘लप्रेक’ (लघु प्रेम कथा) के कई रंगों में सार्वजनिक हुई हैं। ये वो किस्से (पहाड़ी में फसक) हैं जो रवीश को अंदर तक ‘तर’ कर गए।
आप भी आंनद लेना चाहेंगे, तो रवीश जी के कुछ लघु प्रेम कथाओं (लप्रेक) की कुछ पक्तियां हाजिर हैं-
..तुम मुझसे प्यार करते हो या शहर से ?
शहर से; क्योंकि मेरा शहर तुम हो। (पृष्ठ-01)
…..देखो, किरायेदार का अपना कोई शहर नहीं होता। दिल्ली के लाखों मकानों में जाने कितने शहर रहते होंगे।….(पृष्ठ-04)
…….बस भाग तो रही थी सीधी मगर उन्हें हर बार लगा कि किसी मोड़ पर तेज़ी से मुड़ रही है और गिरने से बचाने के लिए एक दूसरे को थामना ज़रूरी है। शहर में प्रेम के ऐसे कोने अपने आप बन जाया करते हैं। भीड़ में घूरे जाने के बाद भी। (पृष्ठ-11)
…..तुम हमेशा सरोजिनी नगर के पीले क्वार्टर की तरह उदास क्यों हो जाते हो ?
क्योंकि तुम अक्सर सेलेक्ट सिटी माॅल की तरह झूठी लगती हो। (पृष्ठ-16)
…बात सफर की नहीं है, बात अनजाने रास्तों पर सफ़र की है। इश़्क में अजनबी न रहे तो इश़्क नहीं रहता….(पृष्ठ-18)
…..शहरों की प्रेम कहानियां ऐसी ही होती हैं। टैफिक में शुरू होती हैं और टैफिक में गुम हो जाती हैं।… (पृष्ठ-25)
देर रात तक कौन जागता होगा ?
चांद और परेशान।
और सोता कौन होगा ?
…आसमान।
हा-हा ऽ ऽ तुम दार्शनिक कब से हो गई !
तभी से, जब तुम आशिक़ हो गए…. (पृष्ठ-28)
…क्या कहूं, इश्क़ में तुम साइंटिस्ट-सी बातें करने लगे हो। तुम चांद के चक्कर में केमिकल रिएक्शन के शिकार हो रहे हो। डीटीसी की एसी बस में बैठकर स्कोडा कार देखकर आहें भरने का यह मतलब नहीं कि तुम मेरी आंखों में चांद नहीं देख सकते। इश्क़ को फ़िज़िक्स क्यों बनाते हो ! (पृष्ठ-29)
…हिन्दी मीडियम के राजकुमारों की यही त्रासदी होती है। वे इंग्लिश मीडियम की गर्ल फ्रैंड के साथ कभी सहज नहीं हो पाते। (पृष्ठ-29)
मगध एक्सप्रेस, बोगी नम्बर एस-वन।
दिल्ली से पटना लौटते वक्त़ उसके हाथों में बर्नार्ड शा देखकर वहां से कट लिया। लगा कि इंग्लिश झाड़ेगी। दूसरी बोगियों में घूम-घूमकर प्रेमचंद पढ़नेवाली ढूंढने लगा। पटना से आते वक्त़ तो कई लड़कियों के हाथ में गृहशोभा तक दिखा था। सोचते-सोचते बेचारा कर्नल रंजीत पढ़ने लगा।
लफुआ लोगों का लैंग्वेज प्राॅब्लम अलग होता है ! (पृष्ठ-57)
पता है तुम दिन-भर में बीस प्रतिशत ख़ुश रहती हो और बारह प्रतिशत उदास। दस प्रतिशत तुम्हारा मूड नन आफ़ दि अबव रहता है। मुझे लेकर आठ प्रतिशत तो ‘नोटा’ रहता ही रहता है।
डार्लिंग तुम मुझे देख रहे हो या चैनल का सर्वे। ओ मेरे झेल सनम…या तो टीवी देख लो या फिर चांद… (पृष्ठ-76)
और बात को विराम देते हुए किताब में रवीश जी के ही शब्दों में-
‘‘प्रेम हम सबको बेहतर शहरी बनाता है। हम शहर के हर अनजान कोने का सम्मान करने लगते हैं। उन कोनों में ज़िन्दगी भर देते हैं। जैसे छठ के समय हमारे यहां कोसी भरा जाता है। खड़े गन्ने का घेरा बनाकर उसके बीच में कितना कुछ भर दिया जाता है। आप तभी एक शहर को नए सिरे से खोजते हैं जब प्रेम में होते होते हैं। और प्रेम में होना सिर्फ़ हाथ थामने का बहाना ढूंढना नहीं होता । दो लोगों के उस स्पेस में बहुत कुछ टकराता रहता है।
‘लप्रेक’ उसी कोशिश और टकराहट की पैदाइश है। फ़ेसबुक पर ‘लप्रेक’ लिखना उसके सीमित स्पेस में बहुत कुछ खोजना था। फ़ेसबुक हमारे लिए एक नया शहर था। ज़िन्दगी में बहुत से लोगों का एक झोंका-सा आ गया। पहली बार की तरह सब एक दूसरे को खोजने लगे। मैं उनके बीच शहर खोजने लगा। ‘लघु प्रेम कथा’ लिखने लगा…….’’
अरुण कुकसाल
ग्राम-चामी, पोस्ट- सीरौं-246163
पट्टी- असवालस्यूं, विकासखण्ड- कल्जीखाल
जनपद- पौड़ी (गढ़वाल), उत्तराखण्ड


















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