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गवर्नर की शक्तियों पर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी टिप्पणी

बिलों पर फैसला लेने की कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती

संवैधानिक पीठ ने कहा : न्यायपालिका कार्यपालिका को समयबद्ध नहीं कर सकती

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार, 20 नवंबर को एक अहम फैसला सुनाते हुए साफ कहा कि गवर्नर या राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों पर अदालत किसी तरह की समयसीमा तय नहीं कर सकती।

पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने एक पुराने आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें तीन महीने की समय सीमा लागू करने की बात कही गई थी।

यह फैसला न सिर्फ केंद्र–राज्य संबंधों पर असर डालता है, बल्कि राज्यों में लंबित विधेयकों के भविष्य को लेकर भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है।

कोर्ट ने क्या कहा

Live Law की रिपोर्ट के अनुसार, चीफ जस्टिस बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा:

  • संविधान में राष्ट्रपति या गवर्नर के लिए किसी निश्चित समय सीमा का प्रावधान नहीं है
  • यदि अदालत ऐसी समयसीमा लागू करती है, तो यह शक्तियों के विभाजन यानी separation of powers के सिद्धांत के खिलाफ होगा
  • न्यायपालिका कार्यपालिका की भूमिका को निर्धारित नहीं कर सकती

पीठ ने टिप्पणी की कि समयसीमा तय करना अदालत का अधिकार नहीं है, क्योंकि यह सीधे-सीधे संवैधानिक पदों की शक्तियों में दखल देना होगा।

गवर्नर बिल पर क्या कर सकते हैं? सिर्फ तीन विकल्प

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संविधान के आर्टिकल 200 और 201 केवल तीन ही मार्ग बताते हैं:

  1. बिल को मंजूरी देना
  2. बिल को विधानसभा को दोबारा भेजना
  3. बिल को राष्ट्रपति के पास भेजना

लेकिन बिल को बिना किसी निर्णय के अनिश्चित काल तक रोककर रखना संघीय ढांचे की भावना के अनुरूप नहीं माना गया।

राज्यपाल–सरकार टकराव पर कोर्ट की नसीहत

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि संवैधानिक संस्थाओं को संघर्ष का कारण नहीं, बल्कि समाधान का माध्यम बनना चाहिए।

कोर्ट की टिप्पणी थी:“संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों में संवाद हो, न कि अविश्वास।”

यानी राज्यपाल और सरकार के बीच संवाद ही इस समस्या का समाधान माना गया।

न्यायिक समीक्षा कब संभव

अदालत ने स्पष्ट किया:

  • कोर्ट हस्तक्षेप तभी कर सकता है जब बिल कानून बन चुका हो
  • यदि गवर्नर बिना वजह बहुत लंबा समय लेते हैं, तो अदालत सिर्फ इतना कह सकती है कि निर्णय जल्द लें—लेकिन समय सीमा लागू नहीं कर सकती

पहला आदेश हुआ रद्द

कुछ महीने पहले एक दो-न्यायाधीशीय बेंच ने सुझाव दिया था कि राज्यपालों को तीन महीने के अंदर बिल पर निर्णय ले देना चाहिए।

लेकिन संवैधानिक पीठ ने माना कि यह सुझाव संविधान के अनुरूप नहीं है, इसलिए इसे निरस्त कर दिया गया है।

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