डा अतुल शर्मा
किनारे मझधार हो गये।
क्या पैंतीस सैकेंड में
यही प्रकृति के
गुस्से की भाषा।
तेज़धार पानी बस्ती से
बहता।
बहा ले जाता मकानों के साथ सब
बादल फटता है तो
हो सकता है कुछ भी।
डर से लिपटी बरसात
तबाही ओढ़े
नहीं सुनती किनारे खड़े लोगों की चीख।
बह जाता देखते ही देखते सब
दबा क्या-क्या?
सूखे हुए आंसुओं में
दबा सब
किनारे मजधार हो गये।
किनारे
जो घर बने हैं
वो खतरों के पास हैं।
यह है प्रकृति के
गुस्से की लिपियाँ
उफनती लहरों सी।
किनारे
मजधार हो गये।

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