रीजनल रिपोर्टर

सरोकारों से साक्षात्कार

उमेश डोभाल स्मृति दिवस पर ललित कोठियाल की याद आना स्वाभाविक है

विगत शताब्दी के सत्तर के दशक में गढ़वाल विश्वविद्यालय का मेधावी छात्र उमेश डोभाल कलम के चश्के के कारण घुमन्तू पत्रकार बन गया।

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पीठ पर पिठ्ठू लादे दुर्गम पहाड़ों की कोख में समाये गांवों-कस्बों की धूल छानता, भूख-प्यास से बेखर, धार-खाल की छोटी से दुकान, खेत, घराट, धारे और दूर डांडे से घास-लकड़ी लाते पुरुषों और महिलाओं से बतियाते हुए वह वहीं बैठे-बैठे अखबारों और पत्रिकाओं के लिए गहन-गम्भीर रिपोर्ट बनाता था।

एक लम्बे झोले में डाक टिकट, लिफाफे, डायरी, गोंद, पेन-पेन्सिल और सफेद कागज तब उसकी बेशकीमती दौलत हुआ करती थी। वह इसी साजों-सामान को कंन्धों पर लटकाये महीनों यायावरी में रहता था।

इस नाते वह चौबीसों घन्टों का पत्रकार था पर पत्रकारिता, उसके लिए मिशन थी, व्यवसाय नहीं।

उमेश डोभाल ने पहाड़ और पहाड़ी के हालातों पर बेबाक लिखा। विशेषकर पहाड़ी जनजीवन के लिए आदमखोर बने शराब माफिया के नौकरशाह और राजनेताओं से सांठ-गांठ के झौल उसने कई बार उतारे। जनपक्षीय पत्रकारिता के खतरों को बखूबी जानते हुए भी वह कभी डरा और डिगा नहीं।

25 मार्च, 1988 को पौड़ी में उसके अपहरण और बाद में हत्या का यही कारण था कि वह शराब माफिया और प्रशासन की मिलीभगत पर नई रिर्पोट लिखने वाला था।

उमेश डोभाल की हत्या के बाद पहाड़ की जनता ने शराब माफिया और सरकार के खिलाफ एक लम्बी स्वयं स्फूर्त लड़ाई लड़ी।

इस लड़ाई में पत्रकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, वैज्ञानिक और छात्रों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। यह आन्दोलन तब के दौर में उत्तराखंड की सीमाओं से बाहर प्रदेश और देश के अन्य क्षेत्रों में लम्बे समय तक गर्म रहा।

परन्तु चौंका देने वाली बात यह थी कि इस शराब विरोधी लड़ाई के खिलाफ शराब माफिया का जबाबी आन्दोलन भी सड़कों पर उतरा। जिसने अस्सी के अन्तिमों वर्षों में शराब माफिया के खौफनाक इरादों और उसकी राजनैतिक पकड़ की मजबूती का सरेआम पर्दाफाश किया था।

उमेश के जाने के 4 दशक बाद आज की तारीख में उत्तराखण्ड में उस जैसे पत्रकार तो न जाने कहां दफ्न हो गये हैं पर हां शराब तत्रं जरूर तगड़ा हुआ है।

उमेश के समय में राजनैतिक संरक्षण में शराब माफिया पनपता था वर्तमान में शराब माफिया के संरक्षण में राजनैतिक तत्रं पनाह लिये हुए है।

आज उत्तराखंडी जन-जीवन में शराब का कारोबार कानून सम्मत और सामाजिक स्वीकृति की ताकत लिए हुए है।

तब से अब तक बस इतना सा फर्क हुआ है कि तब शराब चुनिंदा लोगों की आय का जऱिया थी, आज शराब ही सरकार की आय का मुख्य जऱिया है।

आज उत्तराखंड में शराब न बिके तो सरकार की अकड़ और पकड़ को धड़ाम होने में कोई देरी थोड़ी लेगेगी। शराब तंत्र के लिए उत्तराखण्ड में रोज ही उत्सव है।

उत्तराखंड राज्य की विकास की गाड़ी उसी के बलबूते पर फर्राटा मार रही है, वैसे ये कोई कहने वाली बात नहीं है। सभी जानते हैं।

पर यह भी सच है कमज़ोर लौ में ही सही समाज के उमेश डोभालों की जंग जारी है।

आइए, उनकी जंग में शामिल होकर जिम्मेदार नागरिक होने का अहसास अपनी जिंदगी को करवायें।

https://regionalreporter.in/now-kitab-kauthig-will-be-organized-in-gairsain/
https://youtu.be/kYpAMPzRlbo?si=_PTL9Xjn7IDSceWS
अरुण कुकसाल
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