सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक बच्चे के लिए अपने वास्तविक पिता का पता लगाने की कोशिश करना सही हो सकता है, लेकिन हर मामले में कोर्ट डीएनए टेस्ट की अनुमति नहीं दे सकता।
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यह मामला केरल का है जहां एक महिला की अप्रैल 1989 में शादी हुई थी। 1991 में उन्हें एक बेटी हुई और 2001 में महिला ने एक बेटे को जन्म दिया।
महिला साल 2003 से अपने पति से अलग रहने लगी और साल 2006 में फैमिली कोर्ट ने दंपति की तलाक की अर्जी मंजूर कर दी।
तलाक की अर्जी मंजूर होने के बाद महिला ने कोचिन नगर निगम से बच्चे के पिता का नाम बदलवाने के लिए संपर्क किया, लेकिन अधिकारियों ने कहा कि बिना कोर्ट के आदेश के यह बदलाव नहीं कर सकते।
इसके बाद मां-बेटे केरल के एर्नाकुलम की जिला अदालत गए। उसने बेटे के कथित बॉयोलॉजिकल पिता को DNA टेस्ट से गुजरने का आदेश दे दिया।
कुछ वर्ष बाद बेटे ने अपनी बीमारी और कमजोर आर्थिक स्थिति का हवाला देते हुए कानूनी पिता से कोई मदद न मिलने का भी दावा किया।
लेकिन कथित पिता ने 2008 में हाई कोर्ट में निचली अदालत के फैसले को चुनौती दी और कोर्ट ने DNA टेस्ट के आर्डर को नामंजूर कर दिया।
कोर्ट ने कहा कि,”DNA टेस्ट के लिए तभी कहा जा सकता है जब यह साबित हो जाए कि बच्चे के जन्म के समय पति-पत्नी में कोई संपर्क नहीं था।” इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
महिला ने किया था ये दावा
यह मामला इंडियन एविडेंस एक्ट से सीधे जुड़ा है। एक्ट की धारा 112 कहती है कि अगर कोई विवाहित है और अपने पति या पत्नी के साथ रहता है तो इस विवाहित संबंध के दौरान पैदा संतान वैध मानी जाएगी।
अगर पति की मृत्यु हो गई है, तब भी उसकी मृत्यु के 280 दिन के भीतर पैदा बच्चे को उसी का माना जाएगा।
इस मामले में युवक की मां और उनके पति 2003 तक साथ रह रहे थे। युवक का जन्म 2001 में हुआ था। 2006 में अपने पति से तलाक के बाद महिला यह दावा करने लगी कि उसका बेटा दूसरे पुरुष की संतान है।
निजता के अधिकार का उल्लंघन
सुप्रीम कोर्ट ने मामले में असली माता-पिता को जानने के अधिकार और कथित जैविक पिता के निजता के अधिकार के बीच संतुलन बनाने की जरूरत बताई।
कोर्ट ने कहा कि DNA टेस्ट कराना व्यक्ति की प्राइवेसी का उल्लंघन है। बेंच ने कहा कि किसी व्यक्ति का जबरन DNA टेस्ट करवाने से उसके निजी जीवन पर गहरा असर पड़ सकता है। यह व्यक्ति के मेंटल हेल्थ के अलावा उसके सामाजिक जीवन को भी प्रभावित कर सकता है।