गजेन्द्र दानू
हिन्दी भाषा संविधान प्रदत्त व स्वीकार्य ही नहीं आम भारतीय मानस को उनके मन-मस्तिष्क की संवेदनाओं और ह्रदय प्रदत उद्वेगों को शांति प्रदान करने वाली भाषा है। जो कि सम्पूर्ण भारतीय समाज और विदेशों में रह रहे लोगों में भारत संघ के प्रति स्नेह और मिलन की उत्कंठा को बढ़ाती है।
कोई भी भारतीय जन व्यक्तिगत कुंठाओं और क्षेत्रीयता की सीमित लकीरों से कितना भी जकड़ा हुआ हो वह भारतीय जन मानस की आत्मीय भाषा हिन्दी के बिना अपने आप को अधूरा महसूस करता है।
इस तथ्य की पुष्टि हिन्दी फिल्मों के बड़े-बड़े कलाकारों से लेकर देश की सर्वोच्च राजनीतिक सत्ता के शिखर बिंदु पर पहुंचे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के रूप में सुशोभित होने वाले व्यक्तियों की हिन्दी ठीक से न बोल पाने या न समझ सकने की हार्दिक पीड़ा से समझा जा सकता है।
कुल मिलाकर हिन्दी हमारे समाज की पौराणिक व सांस्कृतिक विरासतों की देन ही नहीं बल्कि जीवन तारिणीय जन -जन के लहू में मिली व रची बसी हुई अभिव्यक्ति की एक मात्र सच्चा साध्य -साधन है ।
और हमारी अलौकिक शक्तियों को साधने की काल्पनिक संकल्पनाओं को साकार करने वाली जीवनदायिनी भाषा है। अतः हिन्दी दिवस को अपनी तरफ़ से खानापूर्ति के रूप में मनाना किसी भी स्वरूप में शोभनीय नहीं कहा जा सकता है।
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