महापंडित राहुल सांकृत्यायन: भारतीय ज्ञान, संस्कृति और यायावरी के अमर प्रतीक

भारतीय संस्कृति और साहित्य में जिन नामों ने अमिट छाप छोड़ी है, उनमें महापंडित राहुल सांकृत्यायन का नाम विशेष सम्मान से लिया जाता है। वे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे—दार्शनिक, इतिहासकार, भाषाविद, लेखक, समाज सुधारक और सबसे महत्वपूर्ण, एक यायावर।

उन्हें आधुनिक हिंदी यात्रा साहित्य का जनक माना जाता है। उनका जीवन एक ऐसा अनूठा उदाहरण है, जिसमें विद्वता, प्रयोग, यात्रा और क्रांति चारों का समावेश है।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

राहुल सांकृत्यायन का जन्म 09 अप्रैल 1893 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गांव में हुआ था। उनका वास्तविक नाम धर्मपाल था।

पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के बावजूद, उनका झुकाव बचपन से ही धार्मिक जिज्ञासा, तर्क और ज्ञान की खोज की ओर था। उन्होंने औपचारिक शिक्षा का सीमित अनुभव लिया, लेकिन स्वाध्याय के माध्यम से उन्होंने जो ज्ञान अर्जित किया, वह विश्वविद्यालयीय शिक्षा से कहीं आगे था।

धर्मपाल से राहुल बनने की यात्रा एक वैचारिक मंथन का परिणाम थी। उन्होंने हिंदू धर्म की कई शाखाओं का अध्ययन किया, वैदिक और पौराणिक ग्रंथों को पढ़ा, लेकिन संतोष नहीं मिला।

इसके बाद उनका झुकाव बौद्ध धर्म की ओर हुआ और उन्होंने बौद्ध भिक्षु बनकर ‘राहुल’ नाम ग्रहण किया—जो कि भगवान बुद्ध के पुत्र का नाम था। ‘सांकृत्यायन’ उपनाम उन्होंने अपने गोत्र ‘सांकृत्य’ से लिया।

भाषाओं पर पकड़ और विद्वत्ता

राहुल जी एक असाधारण भाषाविद थे। उन्होंने संस्कृत, पालि, प्राकृत, तिब्बती, फारसी, अरबी, अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी जैसी 20 से अधिक भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया।

उन्होंने इन भाषाओं के माध्यम से विश्व साहित्य, दर्शन और इतिहास को समझा और भारतीय समाज के लिए उसे सरल भाषा में प्रस्तुत किया।

तिब्बत यात्राएं और बौद्ध ग्रंथों का संग्रह

राहुल सांकृत्यायन ने चार बार तिब्बत की यात्रा की। ये यात्राएं अत्यंत कठिन थीं, लेकिन उन्होंने वहां से दुर्लभ बौद्ध ग्रंथों की पांडुलिपियाँ भारत लाकर बौद्ध अध्ययन और इतिहास के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान दिया।

उन्होंने लाहुल-स्पीति और लेह-लद्दाख जैसे दुर्गम क्षेत्रों की भी यात्राएं कीं। उनकी कृति “तिब्बत में मेरे जीवन के दिन” इस यात्रा का प्रमाण है और आज भी यात्रा साहित्य की अमूल्य धरोहर मानी जाती है।

साहित्यिक योगदान

राहुल सांकृत्यायन ने लगभग 150 से अधिक ग्रंथों की रचना की, जिनमें इतिहास, दर्शन, यात्रा, विज्ञान, उपन्यास, आत्मकथा, भाषाशास्त्र, धर्मशास्त्र आदि विषय शामिल हैं। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएं हैं:

  • “वोल्गा से गंगा” – ऐतिहासिक कथाओं की कालजयी श्रृंखला
  • “दर्शन-दिग्दर्शन” – भारतीय और पाश्चात्य दर्शन पर आधारित
  • “भागो नहीं, दुनिया को बदलो” – क्रांतिकारी विचारों का परिचय
  • “मेरे यात्रापथ के कुछ दृश्य”
  • “मध्य एशिया का इतिहास”

उनकी भाषा सरल, प्रभावशाली और वैज्ञानिक सोच से युक्त थी। वे साहित्य को केवल सौंदर्य का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का हथियार मानते थे।

मार्क्सवाद और वैचारिक प्रतिबद्धता

राहुल सांकृत्यायन जीवन के उत्तरार्ध में मार्क्सवाद से प्रभावित हुए। उन्होंने सामाजिक असमानताओं, जातिवाद और धार्मिक पाखंड के खिलाफ जमकर लिखा। वे मानते थे कि समाज को तर्क और वैज्ञानिक चेतना के आधार पर ही बदला जा सकता है। उन्होंने लोगों को सक्रिय जीवन जीने और अंधविश्वास से बाहर निकलने की प्रेरणा दी।

सम्मान और योगदान की स्वीकृति

  • उन्हें ‘महापंडित’ की उपाधि से नवाजा गया।
  • साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
  • वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, लखनऊ विश्वविद्यालय और कई अन्य संस्थानों से भी जुड़े रहे।
  • भारत सरकार ने उनके अवदान को अमूल्य मानते हुए उनकी स्मृति में कई संस्थानों में व्याख्यान शृंखलाएं और शोध केंद्र स्थापित किए हैं।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन का निधन 14 अप्रैल 1963 को हुआ, लेकिन उनकी कृतियाँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। वे न केवल हिंदी साहित्य के शिखर पुरुष हैं, बल्कि विचारों की स्वतंत्रता और खोज की आज़ादी के प्रतीक भी हैं।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन एक ऐसे व्यक्तित्व थे, जिन्होंने ज्ञान की सीमाओं को लांघकर साहित्य, दर्शन और सामाजिक चेतना को एक नया आयाम दिया।

उन्होंने साबित किया कि एक यायावर भी समाज का मार्गदर्शक बन सकता है, और ज्ञान केवल किताबी नहीं होता, वह अनुभव और प्रयोग से प्राप्त होता है। वे आज भी युवाओं और विचारशील पाठकों के लिए प्रेरणा का स्रोत

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