डॉ. बिक्रम सिंह बर्तवाल
बसंत ऋतु के आगाज और चैत्र माह के प्रारंभ से श्री शुभ विक्रम संवत का नया वर्ष प्रारंभ हो जाता है। उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में प्रकृति नव वर्ष का आगाज नाना प्रकार के पुष्पों को वन-उपवनों में पुष्पित कर उनकी सुगंधी से सरावोर करती है।
प्रकृति का यह संकेत देवात्मा हिमालय तथा इसके धवल शिखरों की गोद में अवस्थित देवतीर्थों में देवताओं के अभिनंदन की तैयारी है।
प्रकृति का यह संकेत यहां की घाटियों से चोटियों तक बसे गांवों के वासिंदे बखूबी समझते हैं। यही कारण है कि प्रकृति के इस ‘देव स्वागतोत्सव’ में यहां के बच्चे, नर- नारी, फुलदेई का महीने भर तक चलने वाला त्योहार मना कर देवताओं का आह्वान कर सुख समृद्धि की कामना करते हैं।
उत्तराखंडी जनमन में रचा- बसा यह लोक पर्व शायद उत्तराखंडी लोक पर्वों में सबसे अधिक अवधि तक मनाया जाने वाला त्योहार है। इसमें मुख्य प्रतिभागी छोटे-छोटे बच्चे और कुंवारी कन्याएं होती हैं।
क्षेत्र विशेष के रीति-रिवाजों के अनुसार इसके मनाने तथा पकवानों को बनाए जाने में थोड़ा बहुत अंतर हो सकते हैं, लेकिन मूल अवधारणा सभी क्षेत्रों की एक ही है कि सभी का जीवन सुखी,प्रसंनचित एवं वैभवशाली हो।
उत्तराखंड के तल्ला- नागपुर क्षेत्र में फूलदेई त्योहार को मनाए जाने की एक विशिष्ट परंपरा है। छोटे-छोटे बालकों और कुंवारी कन्याओं द्वारा पूरे चैत्र मास में रिंगाल की टोकरियों में बुरांस, फ्यूंली, मेलू , पैंय्या, वन लिल्ली के ताजे फूल भरकर गांव के प्रत्येक परिवार की चौखट पर बिन्सरी बेला में डाल दिए जाते हैं। इससे पूर्व गांव के समस्त कुल देवता और ग्राम देवताओं की थानों पर ताजे फूलों से अर्चन किया जाता है।
इसके उपरांत गांव के मुख्य चौक में धूप, दीप, पुष्प, रोट प्रसाद से “गोगा माता” की डोली की पूजा अर्चना की जाती है। प्रसाद का वितरण कर सूर्योदय से पूर्व पूजा का समापन किया जाता है। यह सभी कार्य नित्य प्रतिदिन फुलेरी बच्चों के द्वारा किए जाते हैं।

फुलेरियों (घोघारियों) द्वारा देव जागरण की इस प्रभात फेरी में प्रतिदिन “जय घोघा माता फ्यूंली का फूल,” “जय घोघा माता बुरांज का फूल” आदि जय घोष और प्रार्थनाएं की जाती है।
मेरा घर तल्ला- नागपुर पट्टी, जनपद- रुद्रप्रयाग के कुंडा -दानकोट ग्राम में है। मैंने भी बचपन में एक फुलेरी के रूप में यह सब कार्य किया है।
अतीत की यादों में जब मैं सोचता हूं कि, फूलदेई त्योहार में यह ‘घोगा’ क्या है? जिसे हम माता कहते हैं। इसी उधेड़बुन में मैं कुछ तथ्य आपके सामने रखने का प्रयास कर रहा हूं।
हमारी पहाड़ों में गढ़वाली भाषा में सेमल के फल को भी ‘घोगा’ कहते हैं।
एक अन्य जानकारी के अनुसार उत्तर भारत की कई प्रांतों में ‘घोघा जी’ को सांपों के देवता के रूप में पूजा जाता है। घोघा जी’ की माता का नाम ‘बाछला देवी’ था, जिन्होंने संतान प्राप्ति के लिए गुरु गोरखनाथ की तपस्या की थी।
तपस्या से प्रसन्न होकर गुरु गोरखनाथ ने बाछला को घोगा फल दिया, इसके बाद ‘ घोघा जी’ का जन्म हुआ। जिन्हें गोगा जी, गोगा पीर, गोगा जाहरवीर के रूप में पूजा जाता है।
मेरे विचार से लोक देवता के रूप में प्रसिद्ध गोगा जी की माता बाछला को याद करना नागपुरी संस्कृति में नाग देवता की जननी की आराधना प्रकृति की विशेष शक्ति के रूप में देखा जा सकता है।
फुलदेई के इस त्योहार में दानकोट गांव के बच्चों का ‘जय गोगा माता का जयकारा प्रातः काल प्रकृति की अनंत चेतना में अपने जागरण की प्रार्थना है। यह जागरण यूं ही चला रहे….. फुलदेई त्योहार अमर रहे।