इंद्रेश मैखुरी
उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश मनोहर नारायण मिश्रा के उस फैसले पर रोक लगा दी है, जिसमें कहा गया था कि महिला के निजी अंगों को छूना बलात्कार का प्रयास नहीं माना जा सकता’।
उच्चतम न्यायालय ने उक्त आदेश का एक एनजीओ की ओर से वरिष्ठ महिला अधिवक्ता के पत्र के आधार पर स्वतः संज्ञान लिया। इस आदेश पर टिप्पणी करते हुए न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति ए जी मसीह की खंडपीठ ने कहा कि “……. हम देखते हैं कि इस फैसले के लेखक की ओर से भारी संवेदनहीनता बरती गयी है।”
खंडपीठ ने यह इंगित किया कि उक्त फैसला कोई अचानक क्षणिक आवेश में नहीं लिखा गया है बल्कि तीन महीना सुरक्षित रखने के बाद दिया गया है।
खंडपीठ ने कहा कि उक्त फैसले में की गयी टिप्पणी, कानून के सिद्धांतों के लिए अज्ञात है और पूरी तरह से संवेदनहीन और अमानवीय रुख को प्रदर्शित करती है।
इस संवेदनहीन फैसले पर रोक लगना राहत की बात है. लेकिन सवाल यह है कि कोई न्याय का मूर्ति कहे जाना वाला व्यक्ति कानून और मानवीयता की धज्जियां उड़ाने वाला ऐसा फैसला कैसे लिखता है? क्या न्याय के मूलभूत सिद्धांतों की अवहेलना करने वाले ऐसे न्यायधीश के विरुद्ध कठोर कार्रवाही नहीं की जानी चाहिए ?