1930 में टिहरी रियासत के तिलाड़ी गांव में हुआ नरसंहार
टिहरी जनपद के तिलाड़ी गांव में 30 मई 1930 को हुआ गोलीकांड आज भी उत्तराखंड के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे भयावह और प्रेरक अध्याय के रूप में याद किया जाता है।
ब्रिटिश-प्रभावित टिहरी रियासत में बेगारी, वन कानूनों और करों के खिलाफ आवाज उठाने पर निहत्थे ग्रामीणों पर गोलियाँ चलाना उस दमनकारी दौर की झलक देता है, जिसे इतिहास ने लंबे समय तक अनदेखा किया।
आज, इस घटना की 95वीं बरसी पर स्थानीय संगठनों, इतिहासकारों और ग्रामीणों ने मिलकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी और तिलाड़ी कांड को उत्तराखंड की “जलियांवाला बाग” की संज्ञा दी।
तिलाड़ी: जहां निहत्थों पर बरसी थीं गोलियां
30 मई 1930 की सुबह, टिहरी रियासत के तिलाड़ी गाँव में सैकड़ों ग्रामीण एकत्र हुए थे। वे वन कानूनों, बेगारी प्रथा, और भारी कर के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध-सभा कर रहे थे। यह सभा अहिंसात्मक थी और इसमें पुरुषों के साथ महिलाएं भी शामिल थीं।
सभा के दौरान ग्रामीण “जंगल हमारा है”, “कर नहीं देंगे”, और “राजा नहीं चलेगा” जैसे नारे लगा रहे थे। जब यह खबर दीवान चक्रधर जुयाल तक पहुँची, तो उन्होंने तत्काल सैन्य बल भेजकर गाँव को चारों ओर से घेरने का आदेश दिया।
दोपहर होते-होते, बिना किसी पूर्व चेतावनी के, राज्य के सैनिकों ने ग्रामीणों पर गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। कई ग्रामीणों की मौके पर ही मौत हो गई। अनेक घायल हो गए। भागते हुए कई लोग भागीरथी नदी में कूदे और तेज बहाव में डूब गए।
इस भयावह दृश्य के बाद गाँव में मातम छा गया। लेकिन यह घटना जनता के भीतर राजशाही के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी बन गई।
शासन की बागडोर दीवान के हाथ में
मार्च 1930 में, जब महाराजा नरेंद्र शाह यूरोप गए की यात्रा पर थे, टिहरी रियासत की सत्ता एक परिषद के हाथों में थी, जिसके प्रमुख दीवान चक्रधर जूयाल और हरिकृष्ण रतूड़ी थे। चक्रधर जूयाल अपनी सत्ता बढ़ाने के लिए लगातार षड्यंत्र रचते रहते थे। उनकी नीतियों ने जनता के असंतोष को और बढ़ा दिया।
महाराजा की अनुपस्थिति और भ्रष्ट नौकरशाहों की अनियंत्रित सत्ता ने स्थिति को और जटिल बना दिया। जनता की शिकायतें राजा तक नहीं पहुँच पा रही थीं, क्योंकि नौकरशाहों ने संवाद के सभी रास्ते बंद कर दिए थे।
नरेंद्र शाह, जो विदेश यात्राओं के शौकीन थे, ने जनता के हित में कई योजनाएँ बनाई थीं, लेकिन उनके लापरवाह और बेलगाम नौकरशाहों के कारण ये योजनाएँ धरातल पर नहीं उतर पाईं। इस संवादहीनता और दमनकारी नीतियों ने तिलाड़ी कांड की पृष्ठभूमि तैयार की।
तिलाड़ी गोलीकांड के बाद टिहरी रियासत में आक्रोश की लहर दौड़ गई। जगह-जगह विद्रोह भड़का, करों का बहिष्कार शुरू हुआ और जनता ने बेगारी तथा वन नियंत्रणों को मानने से इनकार कर दिया। यही आंदोलन 1949 में टिहरी रियासत के भारत में विलय का कारण बना।
स्थानीय नेता बने आंदोलन के नायक
नरायण दत्त भट्ट, सिद्दू-भुल्ला जैसे ग्रामीण कार्यकर्ता और युवा नेता आंदोलन के प्रेरणास्रोत बने। बिना किसी राजनीतिक हैसियत के इन लोगों ने जनजागरण को गाँव-गाँव तक पहुँचाया। उनका संदेश था – “जंगल, ज़मीन और जल पर पहला अधिकार जनता का है।”
तिलाड़ी केवल एक गाँव का नाम नहीं — यह संघर्ष का प्रतीक है, स्वाभिमान की पुकार है और स्वतंत्रता के लिए बलिदान देने वाली जनता की अनसुनी लेकिन अमिट कहानी है।
30 मई 1930 को निहत्थे ग्रामीणों पर चलाई गई गोलियाँ आज भी हमें याद दिलाती हैं कि जब शासन अत्याचारी हो जाए और जनता की आवाज दबाई जाए, तब सत्य, साहस और संगठित प्रतिरोध ही इतिहास बदलता है।

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