डॉ . वीरेंद्र सिंह बर्तवाल
पहाड़ में कई दशक पहले तक रक्षाबंधन भाई-बहन का त्योहार न होकर, पुरोहित-यजमान का त्योहार हुआ करता था।
पंडित जी घर-घर जाकर यजमानों को रक्षा सूत्र बांधते थे और यज्ञोपवीत देते। यजमान उन्हें इसके बदले में दक्षिणा या फिर अनाज देते ।
पंडित जी घर – घर आकर बांधते थे रक्षा सूत्र
यह परंपरा लगभग दो दशक पहले तक भी थी। हम बचपन में रक्षाबंधन के त्योहार के लिए बेसब्री से प्रतीक्षा करते, क्योंकि पंडित जी अपने घरों से राखियां बनाकर लाते।

वे राखियों को विभिन्न रंगों में रंगकर उन पर लाल, नीले, पीले, हरे फूल गूंथतेे। वे राखियां दिखने में बड़ी आकर्षक होती थीं। हम तीन-तीन चार-चार राखियां हाथों में बंधवाते और बड़े प्रसन्न होते।
जजमानी प्रथा का मजबूत सूत्र थी यह व्यवस्था
यह परंपरा जजमानी प्रथा का भी मजबूत सूत्र थी। अब इस प्रथा में परिवर्तन आ गया है। अब पुरोहित नहीं के बराबर यजमानों के घरों में जाते हैं और शहरों की देखादेखी में बहनें ही भाइयों को रक्षा सूत्र बांधती हैं।
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