नौकरी नहीं, फिर यात्राएँ
बिहार विधानसभा चुनाव खत्म हो चुके हैं, नतीजे आ चुके हैं, लेकिन एक लंबा सफर अभी बाकी है, प्रवासी मजदूरों के लिए जो वोट तो दे गए, लेकिन रोजगार और भरोसे की तलाश में लौटते हैं।
चुनावी वादों के बीच उनकी असल लड़ाई “काम की कमी” और रोज़ी के लिए है, और इतिहास बार-बार यही कहानी दोहरा रहा है।
यात्रा की मजबूरी: घर लौटने के बाद फिर परदेस
चुनाव के बाद बिहार में प्रवासी मजदूरों की वापसी का सिलसिला फिर शुरू हो गया है। रिपोर्ट्स के अनुसार, छठ और चुनाव के बाद 77 लाख से ज़्यादा मजदूर राज्य छोड़कर अन्य राज्यों में वापस लौटे हैं।
ये प्रवास उनके लिए सिर्फ वोट का सवाल नहीं रहा उनकी रोज़ी का सवाल है।
रोज़गार का संकट: कहते हैं, “गृह राज्य में नौकरियाँ न मिलें”
मज़दूरों का कहना है कि बिहार में पर्याप्त काम नहीं है। रिपोर्ट्स के अनुसार, में प्रवासियों ने अपनाया दर्द-सबा कहा है, “अगर नौकरी बिहार में होती, तो बाहर नहीं जाना पड़ता।
रिपोर्ट्स के अनुसार, एक गहराई-पूछ में बता रहा है कि बिहार में प्रवासी मजदूरों की संख्या बहुत बड़ी है और राज्य की औद्योगिक उन्नति बहुत धीमी है, जिससे रोजगार के विकल्प सीमित रहते हैं।
उद्योगों में असर
चुनावों के दौरान और उसके बाद बिहारी मजदूरों का पलायन बड़े उद्योगों में असर डाल रहा है। रिपोर्ट्स के अनुसार, प्रमुख मैन्युफैक्चरिंग हब जैसे तमिलनाडु के टायर फ़ैक्ट्री और अन्य निर्माण इकाइयों में मजदूरों की भारी कमी नजर आई है।
यह केवल मास-लेबर की समस्या नहीं, आर्थिक ग्रोथ की अस्थिरता का संकेत भी है।
चुनाव पहले ‘मायावी वादे’, बाद में खाली उम्मीदें
राजनीति में प्रवासी मजदूरों को वोट बैंक माना जाता है, लेकिन चुनाव के बाद उनकी ज़िंदगी के सवाल अक्सर अनसुलझे रह जाते हैं। चुनाव से पहले पार्टियाँ छठ के बाद लौटने वाले मजदूरों को घर पर बनाए रखने की कोशिश करती हैं, लेकिन चुनावों के बाद उनकी परेशानियाँ दोबारा लौट आती हैं।
उनमें निराशा बढ़ रही है: मजदूरी और रोजगार की कमी उन्हें फिर उसी ट्रेन तक ले जाती है, जहां उनका वोट भी शुरू हुआ था, लेकिन काम का भरोसा खत्म हो गया।
मजबूरी की मांग: “बिहार में 200 फैक्ट्री लगाओ, हम लौटना बंद करें”
कई प्रवासी मजदूरों की मांग साफ है: “8-10 फैक्ट्री से काम नहीं बनेगा, कम-से-कम 200 फैक्ट्री बिहार में खोली जाएँ ताकि पलायन रुके।”
यह सिर्फ एक मांग नहीं, उनकी रोज़ाना की कश्मकश है, जो चुनावों के बाद भी मुख्यधारा में नहीं आती।











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