साक्षी हैं इतिहास और वर्तमान
डॉ.अतुल शर्मा
उदाहरण बहुत हैं। हिटलर के समय चार्ली चैप्लिन हों या भारतीय स्वाधीनता संग्राम मे जेलों मे लिखी रचनायें। आपातकाल मे बाबा नागार्जुन हों धर्मवीर भारती की मुनादी, पाश धूमिल हों या बहुत से और लोग। गोर्की का उपन्यास मदर हो या प्रेमचंद का साहित्य। सबमे गलत का प्रतिकार देखने को मिल जाता है।
उत्तराखंड मे घनश्याम शैलानी और गिर्दा आदि।
सिनेमा एक ऐसा माध्यम है, जो सीधे – सीधे दृश्यात्मक अनुभूति देता रहा है। एक फिल्म है” द सीड आफ द सेक्रेड फिग” ।

आस्कर के लिए नामित भी हुई थी। मगर इसके निर्देशक को तानाशाही ने बर्दाश्त नहीं किया। उन्हें ईरान छोड़ कर यूरोप भागना पड़ा। ये थे ईरान के अंतर्राष्ट्रीय फिल्मकार रसूलोफ। इन्हें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों मे पुरस्कृत किया जा चुका है। बार बार गिरफ्तारी और उत्पीड़न के बावजूद रसूलोफ ईरान समाज के द्वंद्व और छटपटाहट क़ो सिनेमा में दर्ज करते रहे।
2002 मे पहली डाक्यूमेंट्री बनाई। द ट्वाईलाइट। कैदी की सच्ची कहानी। सलाखों मे बंद आदतन अपराधी को उसी जेल की एक महिला कैदी से मोहब्बत हो गयी थी। कान फिल्म फैस्टीवल मे फिल्म गुड बाय पुरस्कार के लिए नामित हुई। 2011 मे। तब वे कैद मे थे।

सच बोलने के खतरे हर युग मे उठाये जाते रहे हैं। भारत की बात करें, तो कबीर है उदाहरण । यह दस्तावेज बने हैं कि सांस्कृतिकर्मी स्थितियों के अलग होने पर भी सचेतन रहे हैं।