देश की सर्वोच्च अदालत 28 जुलाई को एक ऐसे मामले की सुनवाई करने जा रही है, जो न केवल एक न्यायाधीश से जुड़ा है, बल्कि न्यायपालिका की आंतरिक प्रक्रियाओं, निष्पक्षता और स्वतंत्रता के मानकों को भी गहराई से परखने वाला है।
मामला है दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा की उस याचिका का, जिसमें उन्होंने अपने खिलाफ चल रही आंतरिक जांच की वैधता और निष्पक्षता पर सवाल उठाए हैं।
यह याचिका एक व्यक्तिगत बचाव से कहीं अधिक व्यापक सवाल खड़े करती है — क्या भारत की न्यायपालिका के भीतर जांच और अनुशासनात्मक प्रक्रिया उतनी ही पारदर्शी और निष्पक्ष है, जितनी वह दूसरों के लिए अपेक्षित करती है?
जांच समिति का गठन और जांच प्रक्रिया
14-15 मार्च, 2025 को दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास पर आग लगने की एक घटना हुई। इस दौरान दमकल कर्मियों को कथित रूप से वहां से नकदी की बरामदगी हुई।
यह मामला तत्काल मीडिया की सुर्खियों में आ गया और कुछ ही दिनों बाद 22 मार्च को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने एक तीन-सदस्यीय जांच समिति गठित की।
इस समिति की अध्यक्षता पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शील नागू कर रहे थे। उनके साथ हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को भी शामिल किया गया था। समिति को न्यायमूर्ति वर्मा के खिलाफ आरोपों की जांच का दायित्व सौंपा गया।
याचिका में उठाए गए सवाल
न्यायमूर्ति वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपनी याचिका में कहा है कि उन्हें जांच प्रक्रिया के दौरान न तो पर्याप्त सुनवाई का मौका दिया गया, न ही गवाहों से सवाल करने की अनुमति मिली।
उनका यह भी आरोप है कि किसी औपचारिक शिकायत के बिना ही जांच शुरू कर दी गई और उससे पहले मीडिया को प्रेस विज्ञप्ति के ज़रिये सूचित कर दिया गया, जिससे उनकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची।
यह प्रक्रिया, वर्मा के अनुसार, “नैसर्गिक न्याय” के सिद्धांतों के विपरीत थी, जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को सुनवाई का अवसर दिए बिना उस पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए।
इस्तीफे का सुझाव और स्थानांतरण
जांच समिति ने अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट में न्यायमूर्ति वर्मा को इस्तीफा देने की सलाह दी थी। उन्होंने इस सलाह को अस्वीकार कर दिया, जिसके बाद तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने यह मामला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र के माध्यम से भेजा।
इसके पश्चात न्यायमूर्ति वर्मा को दिल्ली उच्च न्यायालय से स्थानांतरित कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय भेज दिया गया।
याचिका में इस स्थानांतरण को “दंडात्मक कार्रवाई” के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसे नियमों और पारदर्शिता के खिलाफ बताया गया है।

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