चरणसिंह केदारखंडी
आज 26 मार्च है, दूसरे दिनों की तरह एक आम दिन। लेकिन आज के दिन को दहाड़ बनाया चमोली जिले के दूरस्थ गाँव रैणी की ढाई दर्जन महिलाओं ने । शादीशुदा महिलाओं का अपने मायके से विशेष लगाव होता है।
गौरा देवी और उनकी साथियों ने वनों को अपना मायका कहा और सरकार बहादुर और साइमन कंपनी के धूर्त ठेकेदारों के मजदूरों को रैणी के जंगल से बेरंग लौटने को मजबूर कर दिया ।
तारीख़ थी 26 मार्च 1974….
इतिहास ने इस ललकार को ‘चिपको आंदोलन’ (tree- hugging drive) का नाम दिया और बाक़ी सब इतिहास है…।
लेकिन इस लेखक को लगता है कि चिपको आंदोलन के साथ बहुत सारी बातें ऐसी हैं जो उसका मूल संदेश थीं और जिन्हें अभी तक समझा नहीं गया है, न सरकार के द्वारा और न जनमानस के द्वारा।
हमने चिपको आंदोलन की विरासत को एक प्रतीकात्मक महोत्सव, एक फ़र्ज़ आदायगी, एक सालाना औपचारिकता बनाकर रख दिया है…
भाषण दो, जयजयकार करो, लड्डू खाओ और हाथ झाड़कर घर जाकर अगले साल के लिए सो जाओ…!
मेरे दोस्तो, चिपको आंदोलन इतना भर नहीं है।
अपने वास्तविक अर्थ में चिपको आंदोलन मनुष्य की प्रकृति के साथ उस रिश्ते का पुनर्पाठ है जिसे ‘वेदों ने माता भूमि पुत्रोहम पृथ्विया’ कहकर लोकस्मृति का संगीत बनाया है।
चिपको आंदोलन एक सांस्कृतिक दहाड़ थी/है, प्राकृतिक संसाधनों की सरकारी /गैरसरकारी लूट की जो तमाम नपुंसक नारों और झोलाधारी अभियानों के बावजूद, बदस्तूर जारी है…इसलिए चिपको आंदोलन इतिहास ही नहीं, सुलगता वर्तमान भी है।
चिपको आंदोलन एक विचार था/है कि विकास का मॉडल इतना आत्मघाती न हो कि उसके लिए हज़ारों/लाखों पेड़ों को अपनी कुर्बानी देनी पड़े…और जंगल बेसुरा बियाबान हो जाये…
चिपको आंदोलन एक बुलावा था/है गाँव और खलिहान, खेत और जंगल को मल्लेछों की गिद्ध दृष्टि से बचाने का, हिमालय की सहजता और सरलता के संरक्षण का।
चिपको आंदोलन एक दृष्टि है कि वनों को बचाने की, उनके संरक्षण और संवर्धन की सबसे बेहतर तर्बियत आज भी उस समाज के पास है जो प्रकृति की निर्दोष रुमानियत को जीता है और उसी के बीच मरता है….और जिसके लिए संस्कृति नुमाइश या मंचों पर सिक्के बटोरने का मुजरा नहीं बल्कि एक पितृ ऋण है , हिमालय ऋण है….
चिपको आंदोलन पुरस्कारों की लठमार का खेल कतई नहीं था लेकिन वह प्रकारांतर में वही बनकर रह गया और “भारत वन शिरोमणि” बनने की इस होड़ में गौरा देवी ,उनकी सहायक महिलाएं और जोशीमठ की सड़कों पर चैलेंजर माइक लेकर अकेले दहाड़ /धाद लगाने वाले कॉमरेड गोविंद सिंह रावत बहुत पीछे छूट गए… रामचंद्र गुहा तक ने कहानी के मुख्य क़िरदारों को फुटनोट तक सीमित कर दिया …The Unquiet Woods जैसी क़िताबों में ।
आश्चर्यजनक रूप से इस आंदोलन के संदेशवाहक, facilitators, कुल्हाड़ी और आरे के सम्मान में खंड काव्य लिखने वाले लोग चिपको आंदोलन के प्रणेता बन गए ! चिपको आंदोलन की याद पिछले पाँच दशकों में सिर्फ़ तालियों, भाषणों, पुरस्कारों और स्तुतिगान तक सीमित रही है ।
पाठकों को जानकर हैरानी होगी कि जिला मुख्यालय गोपेश्वर सहित चिपको आंदोलन की मर्मस्थली रही ज्योतिर्मठ नगरी में गौरा देवी की याद में अस्पताल, सड़क, सभागार, डिग्री कॉलेज , सार्वजनिक भवन या चिपको स्मारक/संग्रहालय जैसे बड़े स्मारक तो छोड़िए एक अदना सा पार्क, चौराहा, वार्ड का रास्ता और कमरा भी नहीं है !
अपने सच्चे नायकों के साथ कोई ऐसा कैसे कर सकता है!