चिपको आंदोलन के 50 बरस ! — न हम चिपको को समझ पाए, न गौरा को और न ही हिमालय की संवेदनशीलता ..

संजय चौहान!

चिपको आंदोलन के 50 साल की गाथा: बिना किसी शोर शराबे के आज गौरा का अंग्वाल (चिपको) आंदोलन ने 50 बरस पूरे कर दिए हैं। चिपको आंदोलन के जरिये पूरे विश्व को पर्यावरण संरक्षण का अनूठा मंत्र देने वाली गौरा देवी के चिपको आंदोलन की महत्ता को हम 50 बरस बीत जाने के बाद भी नहीं समझ सके।

हमनें चिपको की गाथा को केवल सेमिनारों, पोस्टरों और अखबारों के पेजों की शोभा बढ़ाया, चिपको के जरिए जल, जंगल और जमीन के मुद्दों को कभी भी पिछले 50 सालों में किसी मैनिफेस्टो में जगह पाते नहीं देखा है।

असल मायनों में हमने गौरा के अंग्वाल को जाना ही नहीं और न ही कभी इसके लिये धरातलीय प्रयास किये। आज के पर्यावरणीय असंतुलन के दौर में जिस चिपको की हमें सबसे ज्यादा जरूरत थी उसी चिपको को हमनें आज बिसरा दिया है।

जबकि 50 बरस पहले जिस चिपको नें पर्यावरण के प्रति पूरे विश्व के लोगों को जागरूक किया था आज वहीं चिपको अपने ही घर में भुला दिया गया है। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण घटते जंगल, इस सर्दियों में हुई बेहद कम बर्फवारी है, जो पर्यावरणीय दृष्टि से शुभ संकेत नहीं है।

हम चिपको आंदोलन के 50 साल की स्वर्णिम गाथा को भूल गए हैं, जबकि आज बदलते मौसम चक्र और घटते जंगल के परिदृश्य में चिपको के मूल मंत्र पर्यावरण संरक्षण की सबसे ज्यादा आवश्यकता है।

ये था गौरा का चिपको (अंग्वाल) आंदोलन!

मैं गौरा का अंग्वाल (चिपको आन्दोलन) हूँ। मैंने विश्व को अंग्वाल के जरिये पेड़ों को बचाने और पर्यावरण संरक्षण का अनोखा मंत्र दिया। जिसके बाद पूरी दुनिया मुझे चिपको के नाम से जानने लगी।

मेरा उदय 70 के दशक के प्रारम्भ में विकट व विषम परस्थितियों में उस समय हुआ जब गढ़वाल के रामपुर-फाटा, मंडल घाटी, से लेकर जोशीमठ की नीति घाटी के हरे भरे जंगलों में मौजूद लाखों पेड़ो को काटने की अनुमति शासन और सरकार द्वारा दी गई।

इस फरमान ने मेरी मात्रशक्ति से लेकर पुरुषों को उद्वेलित कर दिया था। जिसके बाद मेरे सूत्रधार चंडी प्रसाद भट्ट, हयात सिंह बिष्ट, वासवानंद नौटियाल, गोविन्द सिंह रावत, तत्कालीन गोपेश्वर महाविद्यालय के छात्र संघ के सम्मानित पदाधिकारी सहित सीमांत की मात्रशक्ति और वो कर्मठ, जुझारू, लोग जिनकी तस्वीर आज 50 साल बाद भी मेरी मस्तिष्क पटल पर साफ़ उभर रही है ने मेरी अगुवाई की।

मेरे लिए गौचर, गोपेश्वर से लेकर श्रीनगर, टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी में गोष्ठियों का आयोजन भी किया गया। अप्रैल 1973 में पहले मंडल के जंगलों को बचाया गया और फिर रामपुर फाटा के जंगलों को कटने से बचाया गया। जो मेरी पहली सफलता थी।

जिसके बाद सरकार मेरे रैणी के हर-भरे जंगल के लगभग 2500 पेड़ों को हर हाल में काटना चाहती थी। जिसके लिए साइमन गुड्स कंपनी को इसका ठेका दे दिया गया था।

18 मार्च 1974 को साइमन कम्पनी के ठेकेदार से लेकर मजदूर अपने खाने-पीने का बंदोबस्त कर जोशीमठ पहुँच गए थे। 24 मार्च को जिला प्रसाशन द्वारा बड़ी चालकी से एक रणनीति बनाई गई जिसके तहत मेरे सबसे बड़े योद्धा चंडी प्रसाद भट्ट और अन्य को जोशीमठ-मलारी सडक में कटी भूमि के मुवाअजे दिलाने के लिए बातचीत हेतु गोपेश्वर बुलाया गया।

जिसमें यह तय हुआ की सभी लोगों के 14 साल से अटके भूमि मुवाअजे को 26 मार्च के दिन चमोली तहसील में दिया जायेगा। वहीं प्रशासन नें दूसरी और मेरे सबसे बड़े सारथी गोविन्द सिंह रावत को जोशीमठ में ही उलझाए रखा ताकि कोई भी रैणी न जा पाये।

25 मार्च को सभी मजदूरो को रैणी जाने का परमिट दे दिया गया। 26 मार्च, 1974 को रैणी और उसके आस-पास के सभी पुरुष भूमि का मुवाअजा लेने के लिए चमोली आ गए और गांव में केवल महिलायें और बच्चे, बूढ़े मौजूद थे।

अपने अनुकूल समय को देखकर साइमन कम्पनी के मजदूर और ठेकेदार ने रैणी के जंगल में धावा बोल दिया और जब गांव की महिलाओं ने मजदूरों को बड़ी-बड़ी आरियाँ और कुल्हाड़ी सहित हथियारों को अपने जंगल की और जाते देखा तो उनका खून खौल उठा वो सब समझ गए की इसमें जरुर कोई बड़ी साजिश की बू आ रही है।

उन्होंने सोचा की जब तक पुरुष आते हैं तब तक तो सारा जंगल नेस्तानाबुत हो चूका होगा। ऐसे में मेरे रैणी गांव की महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी ने वीरता और साहस का परिचय देते हुये गांव की सभी महिलाओं को एकत्रित किया और दारांती के साथ जंगल की और निकल पड़े।

सारी महिलायें पेड़ों को बचाने के लिए ठेकदारों और मजदूरों से भिड़ गई। उन्होंने किसी भी पेड़ को न काटने की चेतावनी दी। काफी देर तक महिलायें संघर्ष करती रही। इस दौरान ठेकेदार नें महिलाओं को डराया धमकाया पर महिलाओं ने हार नहीं मानी।

उन्होंने कहा ये जंगल हमारा मायका है, हम इसको कटने नहीं देंगे। चाहे इसके लिए हमें अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े। महिलाओं की बात का उन पर कोई असर नहीं हुआ। जिसके बाद सभी महिलायें पेड़ों पर अंग्वाल मारकर चिपक गई और कहने लगी की इन पेड़ों को काटने से पहले हमें काटना पड़ेगा।

काफी देर तक महिलाओं और ठेकेदार मजदूरों के बीच संघर्ष चलता रहा। आखिरकार महिलाओं की प्रतिबद्दता और तीखे विरोध को देखते हुये ठेकदार और मजदूरो को बेरंग लौटना पड़ा और इस तरह से महिलाओं ने अपने जंगल को काटने से बचा लिया।

देर शाम को जब पुरूष गांव पहुंचे तो तब जाकर उन्हें इसका पता लगा। तब तक मैं अंग्वाल की जगह चिपको के नाम से जानी जाने लगी थी। उस समय आज के जैसा डिजिटल का जमाना नहीं था। लेकिन इसकी गूंज अगले दिन तक चमोली सहित अन्य जगह सुनाई देने लगी थी। लोग मेरी धरती की और आने लगे थे।

मेरी अभूतपूर्व सफलता में 30 मार्च को रैणी से लेकर जोशीमठ तक विशाल विजयी जुलुस निकाला गया। जिसमें सभी पुरुष और महिलायें परम्परागत परिधानों और आभूषणों में लकदक थे साथ ही ढोल-दंमाऊ की थापों से पूरा सींमात खुशियों से सरोबोर था।

इस जलसे के साक्षी रहे लोग कहते है की ऐसा ऐतिहासिक जुलुस प्रदर्शन उन्होंने आज तक नहीं देखा गया। वो जुलुस अपने आप में अभूतपूर्व था। जिसने सींमात से लेकर दुनिया अपना परचम लहराया था।

चिपको आंदोलन के दौरान ये गीत हर किसी की जुबान पर था।

चिपका डाल्युं पर न कटण द्यावा,
पहाड़ो की सम्पति अब न लुटण द्यावा।
मालदार ठेकेदार दूर भगोला,
छोटा- मोटा उद्योग घर मा लगुला।
हरियां डाला कटेला दुःख आली भारी,
रोखड व्हे जाली जिमी-भूमि सारी।
सुखी जाला धारा मंगरा, गाढ़ गधेरा,
कख बीठीन ल्योला गोर भेन्स्युं कु चारू।
चल बैणी डाली बचौला, ठेकेदार मालदार दूर भगोला ।..

रैणी गांव– पर्यावरण संरक्षण के लिए दुनिया को दिया चिपको का मंत्र, ऋषि गंगा आपदा नें इतिहास ही नहीं भूगोल भी बदल डाला..

चिपको के जरिए पूरे विश्व को पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने वाली गौरा का रैणी वीरान है। हमने विकास के लिए अति संवेदनशील हिमालय में विकासपरक परियोजनाओं को हरी झंडी दी और उसका नतीजा ये हुआ की हमें ऋषि गंगा जैसी विनाशकारी आपदा का सामना करना पड़ा।

हमने परियोजना के आस-पास ग्लेशियरों का न अध्ययन किया न हिमालय में हो रही हलचलों के लिए कोई व्यापक अध्ययन।

ऋषि गंगा आपदा नें गौरा के रैणी का इतिहास ही नहीं बल्कि भूगोल भी बदल डाला है। धार्मिक, सांस्कृतिक और चिपको आंदोलन की प्रमुख गतिविधियों का गवाह रही गौरा का मायका और थाती उद्वेलित है।

वास्तव में देखा जाए तो हमें गौरा देवी के पर्यावरण संरक्षण के चिपको आंदोलन से सीख लेने की आवश्यकता है, तब कहीं जाकर हम गौरा के चिपको आंदोलन की महत्ता को सार्थक साबित कर पानें में सफल हो पायेंगे।

https://regionalreporter.in/umesh-dhobhal-memorial-day/
https://youtu.be/kYpAMPzRlbo?si=_PTL9Xjn7IDSceWS
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