हिंदी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी कविताओं, समीक्षाओं, आलोचनात्मक आलेखों से, शिक्षा पर केंद्रित पत्रिका ‘शैक्षिक दखल’ के संपादन से, बच्चों की रचनात्मक अभिव्यक्ति को मंच देने वाली ‘दीवार पत्रिकाः एक अभियान’ के संचालन और उत्तराखंड में गाँव-गाँव पुस्तकालय खोलने के अभियान से महेश चंद्र पुनेठा वैसे तो पूरी हिंदी पट्टी के लिए सुपरिचित नाम हैं लेकिन दो दिन पूर्व मुझे जब, देहरादून के समय साक्ष्य प्रकाशन से उनके तीन कविता-संग्रह एक साथ मिले, पहले किसके पन्ने पलटूं, देर तक दुविधा में रहा। फ़िर ‘अब पहुंची हो तुम’ की इस पहली ही कविता ने अंतस को ऐसी भरपूर ताज़गी और आत्मीयता से छुआ कि क्रमशः आगे, और आगे थमना आसान नहीं रहा-
न उस राजा के कारण
न पारदर्शी पोशाक के कारण
न डरपोक दरबारियों के कारण
न उस पोशाक के दर्जी के कारण
न चापलूस मंत्रियों के कारण
कहानी अमर हुई बस
उस बच्चे के कारण
जिसने कहा- ‘राजा नंगा है’ !
इस कविता का शीर्षक है ‘अमर कहानी’। आगे, आहिस्ते से ये छह पंक्तियां और बतियाने लगती हैं, जिनमें से उग आता है इस सुपठनीय संग्रह का शीर्षक भी….
सड़क !
‘अब पहुँची हो तुम’ गाँव
जब पूरा गाँव शहर जा चुका है
सड़क मुस्कराई
सचमुच कितने भोले हो भाई
पत्थर-लकड़ी और खड़िया
तो बची है न !
इसके बाद; उसका लिखना, नचिकेता, पता नहीं, जेरूसलम, पहाड़ी गाँव, उनकी डायरियों के इंतजार में, उड़भाड़, जो दवाएं भी बटुवे के अनुसार खरीदती थी, सोया हुआ आदमी, पुनर्वास, गाँव में मंदिर, यूँ ही नहीं, ग्रेफीटी, मेरी रसोई-मेरा देश, लोकतंत्र के राजा, हम तुम्हारा भला चाहते हैं, आपसी मामला, नहीं बदले, कुएं के भीतर कुएं, परीक्षा कक्ष के बाहर पड़े मोजे जूते, दासता से खतरनाक है, माँ की बीमारी में, लोक, छुपाना और उघाड़ना, छोटी बात नहीं, त्रासद, परंपराएं, ठिठकी स्मृतियाँ, चौड़ी सड़कें और तंग गलियाँ, चायवाला, कितना खतरनाक है, भीमताल, दीपावली, किस मिट्टी के बने हैं पिताजी, प्रार्थना, उसके पास पति नहीं है, पहाड़ का जीवन, डर, नफरत और लोकतंत्र के पहरुए, तुम्हारी तरह होना चाहता है, रद्दी की छुटनी, बकरी, लहलहाती किताबें, अथ पंचेश्वर घाटी कथा, ओड़ा का पत्थर, हरेपन को बचाना, छोटी सी नदी, लॉक डाउन में मजदूर आदि, ये छोटी-बड़ी हर कविता गहरी टीस, अपनी सी सीख, तरह तरह की स्मृतियां, न भुला पाने वाली पंक्तियां, उजड़ने के दंश मन पर छाप जाती है, पहाड़ के खेत, पेड़-पौधे, मौसम, वनस्पतियां, पत्थर तक अनायास लिपट कर बोलने बतियाने लगते हैं, पहली से आख़िर तक; पाठ चलता ही चला जाता है जादू की तरह, कितना अद्भुत रच उठा है यह संकलन- ‘अब पहुंची हो तुम’ !