तीन जजों की बेंच करेगी विचार
सेक्स और जेंडर के अंतर को स्पष्ट करने, नीतिगत सुधार और मेडिकल हस्तक्षेप के नियमन की मांग वाली याचिका पर सुनवाई
विविध लैंगिक पहचान, लैंगिक अभिव्यक्ति और यौन विशेषताओं विशेष रूप से इंटरसेक्स व्यक्तियों के अधिकारों से जुड़े एक महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने जा रही है।
मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की पीठ ने निर्देश दिया है
कि इस जनहित याचिका को तीन जजों की बेंच के समक्ष सूचीबद्ध किया जाए।
सीजेआई ने याचिका को “अच्छी याचिका” बताते हुए इसके व्यापक संवैधानिक महत्व को रेखांकित किया।
क्या है याचिका का मूल मुद्दा
यह जनहित याचिका पिछले वर्ष दायर की गई थी, जिस पर 4 अप्रैल 2024 को नोटिस जारी किया गया था,
लेकिन अब तक यह प्रभावी सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं हो सकी थी।
याचिकाकर्ता स्वयं एक इंटरसेक्स व्यक्ति हैं और उन्होंने अदालत से कानून एवं नीतियों में
“सेक्स” (Sex) और “जेंडर” (Gender) शब्दों के प्रयोग को लेकर स्पष्टता और पुनर्विचार की मांग की है।
याचिका में तर्क दिया गया है कि सेक्स और जेंडर दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं,
लेकिन विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका द्वारा इन्हें अक्सर
एक-दूसरे के स्थान पर इस्तेमाल किया जाता रहा है, जिससे नीतिगत भ्रम और अधिकारों का हनन हो रहा है।
NALSA फैसले पर उठाए गए सवाल
याचिका में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक NALSA बनाम भारत संघ (2014) के फैसले
की कुछ टिप्पणियों को चुनौती दी गई है।
याचिकाकर्ता का कहना है कि इस निर्णय में:
- “सेक्स” और “जेंडर” को समान मान लिया गया
- “ट्रांसजेंडर” को एक व्यापक श्रेणी के रूप में इस्तेमाल किया गया
- “तीसरा लिंग” जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया, जो न तो वैज्ञानिक हैं और न ही कानूनी
याचिका के अनुसार, इससे इंटरसेक्स व्यक्तियों की विशिष्ट जैविक और चिकित्सकीय आवश्यकताओं की अनदेखी हुई है।
इंटरसेक्स बच्चों पर मेडिकल हस्तक्षेप बड़ा मुद्दा
याचिका में इंटरसेक्स नवजात शिशुओं और बच्चों पर होने वाले मेडिकल और सर्जिकल हस्तक्षेप
को लेकर गंभीर चिंता जताई गई है।
इसमें आरोप लगाया गया है कि देश में ऐसी कोई समान राष्ट्रीय नीति नहीं है,
जिसके चलते अस्पताल मनमाने तरीके अपनाते हैं।
याचिका में 2022–23 के दौरान राजाजी सरकारी अस्पताल, मदुरै में
कथित तौर पर 40 इंटरसेक्स बच्चों पर की गई सर्जरी का भी उल्लेख किया गया है।
याचिकाकर्ता ने मांग की है कि जानलेवा स्थितियों को छोड़कर, बच्चों पर किसी भी
अपरिवर्तनीय मेडिकल प्रक्रिया को कानून के जरिए रेगुलेट किया जाए।
ट्रांसजेंडर अधिनियम 2019 को भी चुनौती
याचिका में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 2(k)
को असंवैधानिक बताया गया है, जिसमें इंटरसेक्स व्यक्तियों को ट्रांसजेंडर की श्रेणी में शामिल किया गया है।
याचिकाकर्ता का तर्क है कि:
- इंटरसेक्स होना सेक्स विशेषता है, न कि जेंडर पहचान
- दोनों को एक मानना भेदभाव और पहचान मिटाने (erasure) की ओर ले जाता है
- नाबालिग इंटरसेक्स बच्चों को ट्रांसजेंडर के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता
जनगणना और रजिस्ट्रेशन सिस्टम पर भी सवाल
याचिका में जन्म-मृत्यु पंजीकरण और जनगणना प्रणाली में “सेक्स” की जगह “जेंडर” कॉलम के इस्तेमाल पर आपत्ति जताई गई है।
पुरुष, महिला और ट्रांसजेंडर जैसे सीमित विकल्पों के कारण इंटरसेक्स व्यक्तियों
की सही गिनती और डेटा संग्रह संभव नहीं हो पाता, जिससे नीतिगत फैसले प्रभावित होते हैं।
इसके लिए जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 और जनगणना ढांचे में संशोधन के निर्देश मांगे गए हैं।
शिक्षा, रोजगार और आरक्षण की मांग
याचिका में यह भी कहा गया है कि स्कूलों, कॉलेजों और नौकरियों के आवेदन फॉर्म लोगों को
केवल पुरुष या महिला चुनने के लिए मजबूर करते हैं, जिससे इंटरसेक्स व्यक्तियों का बहिष्कार होता है।
इंटरसेक्स व्यक्तियों को एक हाशिए पर पड़े समुदाय के रूप में पहचान देने
और आरक्षण जैसे उपायों पर भी विचार की मांग की गई है।
राष्ट्रीय वैधानिक निकाय की मांग
याचिका में विविध जेंडर पहचान, अभिव्यक्ति और सेक्स विशेषताओं वाले लोगों के अधिकारों
की रक्षा के लिए एक राष्ट्रीय वैधानिक आयोग या सशक्त नियामक संस्था के गठन की मांग की गई है।
दलील दी गई है कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए मौजूदा राष्ट्रीय परिषद के पास
पर्याप्त शक्तियां और संसाधन नहीं हैं।
कौन कर रहा है पैरवी
याचिकाकर्ता की ओर से आस्था दीप (AOR) और सुजीत रंजन ने पक्ष रखा है।
















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