अंजलि आहूजा
कोलकाता में डाॅक्टर से रेप, नहीं...सामूहिक बलात्कार और हत्या की घटना होती है। फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया हो या इनफ्लूएंसर्स की रील्स, लेखकों के लेख, अखबारों की सुर्खियां, सब तरफ आक्रोश है, गुस्सा है।
देखकर लगा कि मुझे भी इनमें शामिल होकर साथ देना चाहिए, मैं भी कुछ पंक्तियां कविता रूप में लिखती हूं, पर तभी आवाज आई; अच्छा, यही है, जो हम करना चाहते हैं? क्या इसी से हमारी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है?
तो क्या करें? चुप बैठे रहें! ये सोच कर कि जो हो रहा है वो हमारे या हमारे किसी अपने के साथ तो नहीं हुआ। चलो, गनीमत है!
लेकिन ये भी तो सच नहीं है। ना जाने कितनी और इस प्रकार की घटनाएं लगातार हो रहीं हैं। आखिर क्या है, जो रोक सके इन घटनाओं को? बेटी को शिक्षा, समानता, स्वावलंबी बनाना सब कुछ तो कर रहे हैं, फिर भी क्यों?
कमी रह गई बेटों को मजबूत बनाने में। उनको एक सुदृढ़ व्यक्तित्व देने में। उनको ये सिखाने में कि खुद पर नियंत्रण कितना आवश्यक है, बेटी को मां-बाप तोते की तरह समझते हैं कि ये करना है, वो नहीं करना है। कितने मां-बाप हैं, जो बेटों को बचपन से इस तरह की कंडीशनिंग करते हैं। बहुत विरले। बेटों को ये समझाने में कि आपकी बहन, बेटी भोग की वस्तु नहीं है। अमर्यादित व्यवहार हो ही न, यदि बेटे ये समझ लें कि किसी पर जबरन अपनी मर्दानगी दिखाना, कोई मर्दानगी नहीं है।
इस से भी अच्छा होगा यदि वो ये समझ लें कि इस अपराध की सजा सिर्फ मौत है। इस तरह के कृत्य करने के बाद जब ये लोग समाज में खुले घूमते हैं, तो न जाने और कितनी जिंदगियों को बर्बाद करते हैं। इनकी मुक्ति सिर्फ मौत के द्वार पर ही है। जब हम भारत वासी कर्मो के फल के सि(ांत में विश्वास रखते हैं, तो इन हैवानों को भी ये विश्वास दिलाओ कि इस कुकर्म का त्वरित फल मिलेगा, मौत की सजा के रूप में।
इसलिए, इनको सिर्फ मौत दी जाए!