एक लाचार पटकथा a poor script

डॉ. उर्मिल कुमार थपलियाल

पहला सीन ये है कि यहॉं श्मशान जैसी शांति के माहौल में व्यवस्था बगुला भगत की तरह एक टॉंग उठाए खड़ी है। नवोदित प्रकाशन अपनी पंगुता में प्रसन्न है। कानून ने अपनी अंधी ऑंख में काजल पोत लिया है। न्याय तो यूॅं भी धृतराष्ट्र था। अब तो वो राष्ट्र और महाराष्ट्र भी है। कैमरे को मोड़ें, तो राजनीति अपने पेशे के अनुसार https://regionalreporter.in/mool-niwas-maharaili-10-march-ko/ गुणीजनों को रिझाने में लगी है। चूंकि उसका चरित्र नववधू सा है। अतः वह सदा सुहागन है। अंखड सौभाग्यवती। वो अक्सर अपने बूढ़े तबलचियों को भी ललचाए रखती है। युवाओं को विगलित करने के लिए इन दिनों कम कपड़ों में सुविधाजनक लग रही है। लॉन्ग शॉट में देखें तो खुर्राट नेतागण एक बार फिर देश की चिन्ता में जनता का जूस पीने में व्यस्त हैं। उनकी भंगिमाओं और मुद्राओं, चेष्टाओं से लगता है, उन्हें हार के कारणों की नहीं अपने कारणों की चिंता है। एक ओर दल है, दूसरी ओर विचारधारा। दोनों एक-दूसरे को लतिया रहे हैं, किन्तु छोड़ नहीं रहे। मिडशॉट में जाएॅं तो पूर्ण बहुमत के मुगल गार्डन में कागजी फूलों की नर्सरी सजने लगी है। विपक्ष शिवजी की तीसरी ऑंख की तरह लाचार है, क्योंकि ऑंख में मोतियाबिंद उभर आया है। पूरे राष्ट्रीय स्क्रीन पर देखें तो एक हास्य प्रधान तांडव में हास्य भाव मुंबई की उस नाबालिग कामवाली की तरह कैमरे के सामने मुंह छुपाए बैठी है, जो अभी-अभी शाइनी आहूजा के घर से निकली है। फिलहाल लंच चल रहा है। खाद्य सामग्री वामपंथी तेवरों की तरह शिथिल व बेस्वाद सी हैं। बंगाल की प्रसि( मिठाई में रस निचुड़ गया है, सिर्फ गुल्ला बचा है। फिल्म में देशप्रेम का तड़का जरूरी है, सो भूतपूर्व भरत कुमार उर्फ मनोज कुमार के सुझावानुसार कोई उत्तेजक हीरोइन भारत माता की बासी मूर्ति के आगे ताबड़-तोड़ नाचेगी और गाना बजेगा कि मेरा रंग दे वसंती चोला। यहीं, एक चालू किंतु सफल निर्देशक की अपील मान ली जाएगी कि हीरोइन का चोला क्या होता है जी? अतः गीतकार उसे मेरी रंग दे वसंती चोली कर डालता है। खैर! गैर फिल्मी बात करिए। सब जानते हैं कि साहित्य के सदन में व्यंग्य की भूमिका विपक्ष होती है। मेरी बाकी बची पटकथा में लोकसभा चैनल सह-निर्माता हैं। सीन ये है कि युवा सांसद प्रायोजित दलितों की पंचसितारा झोपड़ियों में रात्रि निवास कर रहे हैं कि- हे प्रभो! आनंददाता, ज्ञान हमको दीजिए। कट-कट। पटकथाकार ने उन्हें टोका- अबे जाहिलो! आनंददाता से ज्ञान मॉंग रहे हो? शर्म नहीं आती। वे न माने। उन्होंने बैल दुह लिया। आर्ट फिल्म हो गई।

(दिवंगत लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, व्यंग्यकार एवं नाट्यकर्मी रहे हैं।)

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