चैत्र मास और धार्मिक उत्सव

उमा घिल्डियाल
सनातन पंचांग में, विशेष कर उत्तराखंड में नव वर्ष चैत्र मास से अर्थात सूर्य की मीन संक्रांति से प्रारंभ होता है। इसका तात्पर्य है कि सूर्य जब अपनी धुरी पर परिक्रमा करते हुए कालचक्र की अंतिम राशि मीन राशि में प्रवेश करता है, तब नव वर्ष प्रारंभ होता है, जिसे चैत्र मास कहा जाता है। सौर पंचांग में प्रत्येक माह संक्रांति से ही प्रारंभ होता है। इन सभी महीनों को सौर मास कहते हैं। यह वह समय है जब शीत का मौसम समाप्ति की ओर होता है और ग्रीष्म का मौसम प्रारंभ हो रहा होता है। प्रकृति की इस क्रिया को संक्रमण शब्द से पहचाना जाता है ।

चैत्र मास उत्सवों और धार्मिक त्योहारों का मास है। फूलदेई का प्रसिद्ध बाल त्योहार तो मनाया ही जाता है, साथ ही परंपरागत ढोल वादक अपने-अपने यजमानों की बेटियों/ध्याणियों की कुशल खबर लेने उनकी ससुराल जाते हैं। उसके बच्चों के लिए अपनी ओर से उपहार ले जाते हैं, उसकी संतानों की बधाई देते हैं और मंगल कामना करके अपने यजमान को पुत्री की कुशलता और पारिवारिक सौहार्द का समाचार देते हैं।

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चैत्र मास में एक और धार्मिक उत्सव बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है- नवरात्र। अर्थात नव दिनों की यह पूजा और व्रत मुख्य रूप से विष्णु की माया महामाया का उत्सव है। महामाया अर्थात इस समस्त संसार को अपनी माया से मोहित करने वाली। इस महामाया को हम उमा, पार्वती, महाकाली, अंबिका, दुर्गा, चंडिका, महिषासुर मर्दिनी आदि कई नामों से जानते हैं। नवरात्र में गृहस्थ, साधु, सन्यासी, मुनि, ऋषि, शैव, शाक्त, वैष्णव आदि सभी मतमतान् तरों के अनुयायी महामाया की आराधना समान रूप से करते हैं। जागरी जागर गाते हैं, ढोल वादक मंडाण लगाते हैं और पंडित लोग दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं। नव दिनों तक श्रद्धलु व्रत रखते हैं। अन्नाहार, फलाहार, जलाहार आदि कई प्रकार के व्रत रखे जाते हैं। माता के मंदिर इन दिनों कई प्रकार से सुसज्जित होते है, दर्शनों के लिए भीड़ लगती है। नवरात्र के नौवे दिन कन्याओं का पूजन होता है, उनके पैर पूजे जाते हैं, उन्हें उपहार दिए जाते हैं और अपने घर की मंगल कामना उन बालिकाओं से की जाती है। सही अर्थों में इस उत्सव को बालिकोत्सव या कन्या उत्सव भी कह सकते हैं।


आप सब ने दुर्गा सप्तशती को संपूर्ण या अंशतः अवश्य पढ़ा होगा। इसे मार्कंडेय ऋषि ने लिखा है। इसमें तेरह अध्याय और 700 श्लोक हैं। नव दिनों तक योग माया के नव रूपों का पूजन होता है।
हमारा अभीष्ट है- चतुर्थ दिवस जिसमें देवी के कुष्माण्डा रूप की पूजा होती है। यह देवी अपनी मंद मुस्कान से ही ब्रह्मांड का निर्माण कर देती है। दुर्गा सप्तशती के पांचवें और छठे अध्याय में वर्णन आता है कि माता अंबिका हिमालय में विराजमान है। उनके दिव्य सौंदर्य से वातावरण उद्भाषित हो रहा है। उन्हें शुंभ और निशुंभ के दूत चण्ड और मुण्ड देखते हैं एवं देवी के सौंदर्य की चर्चा शुंभ और निशुंभ से करते हैं। शुंभ- निशुंभ अंबिका के सामने विवाह का प्रस्ताव रखते हुए कहते हैं कि तुम हम दोनों भाइयों में से किसी एक से विवाह कर लो। अंबिका ने कहा कि वह प्रतिज्ञा कर चुकी है कि संसार के उस व्यक्ति से विवाह करेंगी जो युद्ध में उसे पराजित कर देगा अर्थात अंबिका ने दैत्यराज शुम्भ के प्रस्ताव के उत्तर में ना कह दिया। शुम्भ नहीं माना और अंबिका के साथ युद्ध में दोनों भाई मारे गए। अंबिका का यह प्रसंग सभी कालों में सर्वथा प्रासंगिक है।

नारी को हम शक्ति मानते हैं दुर्गा, अंबिका स्वरूप मानते हैं, परंतु उसकी ना हमें पसंद नहीं, स्वीकार्य नहीं, परिणाम स्वरूप हम शुम्भ-निशुम्भ का रूप धारण कर उसे हतोत्साहित करते हैं, प्रायः उसे जीवन से भी हाथ भी धोना पड़ता है। उसकी अस्वीकारोक्ति हमें अपनी अवहेलना प्रतीत होती है। अपने चारों ओर हमें बहुत सी निर्भयायें, अंकितायें दिखती है, किंतु हम आँख मूंदकर सोचते हैं कि सब सुंदर है, जुगुप्सा, वीभत्सता कहीं नहीं है, जबकि इसे हम निरंतर जन्म देते जा रहे हैं, नवरात्र की आराधना में यह अवश्य विचारणीय होना चाहिए।
इसी माह हम युगपुरुष, लोकनायक मर्यादा पुरुषोत्तम राम का भी जन्मदिन रामनवमी को मनाते हैं। राम एक ऐसे पूर्ण पुरुष है, जो निर्लिप्त भाव से पिता की आज्ञा मानकर, अयोध्या का राज्य त्याग कर वनवास स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन सीता के अपमान को नहीं सहते और लंका पहुंचने के लिए वानरों को कुशल सैनिक तो बनाते हैं ही, कभी न बँधने वाले समुद्र पर भी सेतु बांधकर लंका का विनाश कर देते हैं। रावण ने सीता की ना को नहीं स्वीकार किया तो सदैव के लिए परिवार सहित नष्ट हो गया।
हम आज स्वतंत्र है, अपने संविधान पर गर्व करते हैं। लोकसभा के चुनाव हो रहे हैं। सभी लोग अपनी-अपनी आशाओं के साथ चुनाव को देख रहे हैं, समझ रहे हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं नयी लोकसभा का । साथ ही प्रतीक्षारत हैं असंख्य निर्भयायें और अंकितायें कि क्या उनकी ना को न्याय मिलेगा? क्या संविधान दे पाएगा उन्हें सहज जीवन और इच्छा अनुसार कार्य संस्कृति का अधिकार ?

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