बीरेन्द्र घावरी
उत्तराखंड में 1980 वन अधिनियम से पूर्व जब भी जंगल में आग लगती थी, गांव का पधान कहे अथवा प्रधान एक आवाज में सारे गांव वासी एक नजर में जंगल में लगी आग को बुझाते थे,
किंतु जैसे ही इंदिरा गांधी तत्कालीन समय में प्राइम मिनिस्टर …………. उन्हीं की देन आज उत्तराखंड में कठोर बन अधिनियम आज जो पलायन, सीमांत जनपद के लोगो का अपने हक हकूक …तमाम सवाल पैदा करता है।
10 दिसंबर 1996 को सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश में फाॅरेस्ट एक्ट लचीला ऐसा हिमाचल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पहल की, आज जरूरत है कि उत्तराखंड में जो 1980 का काला फाॅरेस्ट एक्ट है
जो तत्कालीन समय की प्राइम मिनिस्टर इंदिरा गांधी की देन है उसे लचीला किया जाय, आज पहाड़ों में कोई गोसाला निर्माण को 20 बैग बजरी ले जाने पर उक्त वाहन सीज किया जाता है जबकि मकान मालिक राॅयल्टी देने को तैयार है।
पहले राॅयल्टी तहसील स्तर पर जमा हो जाती थी आज अगर आप बजरी निकालना चाहते है तो शासन से अनुमति लेनी पड़ती है, कुल मिलाकर जबतक सीमांत जनपद के लोगों को अपने जल जमीन, जंगल पर अधिकार नहीं मिलेंगे,
जंगल यों ही जलते रहेंगे, जब लोगों को अपने जंगल पर अधिकार था आग लगने पर तमाम गांव वासी आग बुझाने आगे आ जाते थे।
आज लोगों का कहना है जब हमारा जंगल पर अधिकार ही नहीं तो हम क्यों……., 1980 का बन अधिनियम जब तक लचीला नहीं होगा सीमांत जनपदों से पलायन रुकने वाला नहीं, बड़ी हैरानी तब होती जब यहां के टूरिज्म से जुड़े आला मंत्री, नौकरशाह कहते नजर आते हम स्विट्जरलैंड गए हमने लंीं ऐसा देखा वैसा देखा।
भाई सीमांत जनपद का सुदूर क्षेत्र देखिए, यहां कैसा है , कुल मिलाकर जिसदिन उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में 1980 का बन अधिनियम लचीला होगा सीमांत वाशियों को जल जमीन पर हक हकुक मिलेगा सरकार नही बल्कि ग्रामीण लोग जंगल की आग बुझाने को आगे आयेंगे,
सूत्र तो यहां तक भी कहते है कि बन विभाग वाले कतिपय खुद ही आग लगा देते जहा उन्होंने फर्जी पैड या ……अतः पुनः सरकारी बजट मिले किंतु यह आरोप ही कहलाएगा आरोप लगाने से आरोप सिद्ध नहीं हो जाते।
क्या है वन संरक्षण अधिनियम 1980–
साल 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बनाया गया ताकि वन भूमि को गैर वन संबंधी उपयोग हेतु बदला न जा सके। सन् 1988 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया,
जिसके अनुसार भारत सरकार से अनुमति लिए बिना किसी भी वन भूमि को किसी अन्य प्रयोजन के लिए उपयोग करने को संज्ञेय अपराध घोषित किया गया।
इस प्रकार यदि कोई वन अधिकारी भी वन भूमि को किसी अन्य प्रयोजन के लिए उपयोग करेगा तो उसे 15 दिन की कारागार की सजा हो सकती है। इसका प्रयोजन उद्योग और वाणिज्य को वन संवर्धन कार्यक्रम के नाम पर वन भूभाग में वाणिज्यिक रोपण को रोकना था।