उत्तराखंड राज्य गठन के 25 साल बाद भी बुनियादी सुविधाओं के अभाव की तस्वीरें अब भी पहाड़ों से सामने आती रहती हैं।
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की विधानसभा चंपावत से ऐसा ही एक वीडियो सामने आया है जिसने सबको झकझोर दिया है।
सीमांत तल्लादेश के खटगिरी गांव के ग्रामीणों को अपने साथी का शव भारी बरसात में डंडे में बांधकर 12 किमी. तक पैदल ढोना पड़ा। यह न सिर्फ एक परिवार का दर्द है, बल्कि विकास के तमाम सरकारी दावों की पोल खोलने वाली तस्वीर है।
12 किलोमीटर पगडंडी पर शव का सफर
खटगिरी गांव के 65 वर्षीय संतोष सिंह की चंपावत जिला अस्पताल में मौत हो गई थी। परिजन शव को वाहन से करीब 32 किलोमीटर मंच तक ले आए, लेकिन उसके आगे कोई मोटर योग्य सड़क नहीं थी।
मजबूरन ग्रामीणों ने शव को पन्नी में लपेटकर एक लकड़ी के डंडे में बांधा और भारी बारिश के बीच 12 किलोमीटर पगडंडी पर पैदल सफर तय किया। गांव तक शव पहुंचने में घंटों लग गए। जो व्यक्ति जीते जी सड़क सुविधा का इंतजार करता रहा, उसे मरने के बाद भी कंधों और डंडे के सहारे ही अपने घर पहुंचना पड़ा।
गांव में शव पहुंचते ही हर किसी की आंखें नम हो गईं। ग्रामीणों का कहना है कि यह दृश्य मात्र एक अंतिम यात्रा नहीं, बल्कि उस विफल सिस्टम का आईना है जिसने पहाड़ों को अब तक सड़क और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से महरूम रखा है। जिसने भी वीडियो देखा, वह व्यथित हो उठा। यह वीडियो आज आधुनिक समाज के मुंह पर तमाचा बन गया है।
धामी की विधानसभा से उठा सवाल
सबसे अहम बात यह है कि यह दर्दनाक तस्वीर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की विधानसभा से सामने आई है। धामी पिछले पौने चार साल से चंपावत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। उन्होंने इसे आदर्श विधानसभा बनाने का दावा किया था, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयान कर रही है।
ग्रामीणों का कहना है कि यदि चुनावी घोषणाओं के बजाय सड़क पर ध्यान दिया गया होता, तो आज उन्हें अपने साथी का शव पगडंडी से ढोकर नहीं लाना पड़ता।
पहाड़ों का पुराना जख्म
यह कोई पहली घटना नहीं है। 2018 में भी चंपावत जिले के गद्युदा गांव में 70 वर्षीय महिला को सड़क न होने के कारण पालकी में सात किलोमीटर पैदल लाना पड़ा था।
हाल ही में अन्य मामलों में भी मरीजों और घायलों को ग्रामीण डोली या पालकी में बांधकर 10–12 किलोमीटर तक सड़क तक ले जाने को मजबूर हुए।
इन घटनाओं से साफ है कि सड़क जैसी बुनियादी सुविधा अब भी पहाड़ों में दूर का सपना बनी हुई है।
राज्य निर्माण के दो दशक से अधिक बीत जाने के बाद भी जब मूलभूत सुविधाओं की ऐसी स्थिति है, तो लोगों का गुस्सा और पीड़ा दोनों जायज हैं।
सवाल यह है कि क्या अब भी हालात बदलेंगे, या पहाड़ों में जीवन और मौत का यह दर्दनाक सफर यूं ही जारी रहेगा?

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