सांस्कृतिक प्रस्तुति ने बांधा समां
पिथौरागढ़ जनपद के बेरीनाग क्षेत्र में स्थित सैम देवता मंदिर परिसर में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर आयोजित बौराणी मेले ने एक बार फिर उत्सव, आस्था और संस्कृति की अद्भुत छटा बिखेरी।
परंपरा के अनुसार पुलई चापड़ गांव में बनाए गए लगभग 27–30 फीट लंबी विशाल मशाल को गोबरगाड़ा से सैकड़ों ग्रामीण कंधों पर उठाकर मंदिर तक लेकर पहुंचे।
मंदिर पहुँचने के बाद श्रद्धालुओं ने सैम देवता के सामने सात बार परिक्रमा की और फिर तय रीति अनुसार मशाल को मंदिर परिसर में गाड़ दिया।
कार्तिक पूर्णिमा को मशाल लाने की यह परंपरा सदियों से चली आ रही मानी जाती है। श्रद्धालु इसे सुख, शांति और समृद्धि का प्रतीक मानते हैं।
मंदिर पहुंचे भक्तों ने विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर सैम देवता का आशीर्वाद प्राप्त किया। अखंड धूनी में आस्था प्रकट करने और मनोकामनाएं पूरी होने की मान्यता ने हजारों श्रद्धालुओं को मंदिर परिसर में आकर्षित किया।
मेले का उद्घाटन पूर्व विधायक मीना गंगोला ने किया
दोपहर के कार्यक्रम का उद्घाटन पूर्व विधायक मीना गंगोला ने किया। उन्होंने कहा कि बौराणी मेला हमारी विरासत, संस्कृति और परंपराओं का जीवंत दस्तावेज़ है। उन्होंने मेले को आने वाले वर्षों में और भव्य रूप दिए जाने की बात कही।
मेले में स्कूली बच्चों और क्षेत्रीय कलाकारों ने रंगारंग सांस्कृतिक प्रस्तुतियों से सभी का मन जीत लिया। शाम होते-होते पूरा परिसर उत्सव में डूब गया।
लोक कलाकार दीवान कनवाल, प्रकाश रावत, नीरज चुफाल और श्वेता मेहरा की शानदार प्रस्तुतियों ने दर्शकों को झूमने पर मजबूर कर दिया।
पूर्व दर्जा राज्य मंत्री खजान चंद्र गुड्डू ने मेले की ऐतिहासिकता और सांस्कृतिक महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा “यह मेला हमारी संस्कृति, परंपरा, आस्था और आपसी एकता का अद्भुत प्रतीक है। पीढ़ियों से चली आ रही यह रस्म आज भी उतने ही उत्साह और गर्व के साथ मनाई जाती है।”
जुए की कुप्रथा से सांस्कृतिक महोत्सव तक का सफर
कभी बौराणी मेला पूरे पहाड़ ही नहीं, बल्कि मैदानी इलाकों में भी जुआ मेले के रूप में कुख्यात था। दो दशक पहले यहां बड़े पैमाने पर जुआ खेलने की कुप्रथा प्रचलित थी।
राज्य गठन के बाद स्थानीय युवाओं ने इस कुरीति के खिलाफ आवाज उठाई।
साल 2004 में तत्कालीन एसडीएम श्रीश कुमार ने स्थानीय युवाओं और प्रशासन के सहयोग से कड़े कदम उठाए, जिसके बाद यहां जुआ पूरी तरह खत्म हो गया।
तब से यह मेला अब सांस्कृतिक और धार्मिक रूप में दो से तीन दिनों तक भव्य रूप से मनाया जाता है।
मंदिर परिसर में मशाल गाड़ने के बाद पारंपरिक झोड़ा-चांचरी की गूंज वातावरण में फैल गई। महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग पारंपरिक वेशभूषा में थिरकते दिखाई दिए। सांस्कृतिक धुनों के बीच सैम देवता के जयकारों से पूरा क्षेत्र गूंज उठा।
मेला महोत्सव समिति के अध्यक्ष राजेंद्र बोरा ने दो दिवसीय मेले के शांतिपूर्ण समापन पर सभी ग्रामीणों, आगंतुकों और प्रशासनिक सहयोग के लिए आभार व्यक्त किया।












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