अस्कोट-आराकोट यात्रा : पहाड़ को गहराई से समझने का एक मौका

अभिरेख अरुणाभ

अगर आप जानना चाहते हैं हिमालय को और उसके आँचल में रहने वाले लोगों को तो यह यात्रा आपके लिए है अस्कोट-आराकोट यात्रा । 25 मई को उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध संग्रामी श्रीदेव सुमन के जन्म दिवस पर शुरु होने वाली यह यात्रा, इस बार अपनी 50 वीं वर्षगांठ मना रही है।
25 मई 1974 को श्रीदेव सुमन की जयंती पर प्रसिद्ध पर्यावरणविद् श्री सुन्दरलाल बहुगुणा की प्रेरणा से शुरू हुई थी अस्कोट-आराकोट यात्रा। तब से हर 10 वर्ष में यह यात्रा होती रही है। सुन्दरलाल बहुगुणा जी के अलावा इस पहली यात्रा के अन्य तीन शिल्पी श्री कुंवर प्रसून, श्री प्रताप शिखर और श्री शमशेर बिष्ट थे। भले ही आज यह चारों शिल्पी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अनोखी पहल आज भी उनके मूल्यों और सिद्धांतों को जानने मौका देती हैं। पहली यात्रा 45 दिनों में लगभग 750 किमी. के दौरान 9 से 14 हजार फीट तक के तीन पर्वत शिखर के साथ ही 200 से अधिक गाँवों, कस्बों से गुजरी। पहली यात्रा में पहाड़ का पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य को लेकर कमियाँ चिन्हित हुई, जो कालांतर में पहाड़ विमर्श का हिस्सा बनीं ।

अस्कोट-आराकोट यात्रा-1984


प्रो. डॉ. शेखर पाठक इस वर्ष भी ऊर्जा के साथ इस यात्रा का नेतृत्व करेंगे। यात्रा की इस अवधि में रैंणी चिपको- आन्दोलन के 50 वर्ष पूरे होने पर रैंणी, गोपेश्वर, गुप्तकाशी में आयोजन होंगे। इस बार की यात्रा 25 मई से शुरू होने के बाद उत्तराखण्ड के 350 सुदूर गाँवों, 35 नदियों और गाड़ों (सहायक नदियाँ) के किनारे, 16 बुग्याल, 20 खरक और 5 जनजाति क्षेत्र से गुजरते हुए कुल 1150 किमी. दूरी तय करेगी और 8 जुलाई को उत्तरकाशी के आराकोट में समाप्त होगी। पिथौरागढ़ के पांगू से शुरु होने वाली इस यात्रा को इस बार प्रथम चरण के तौर पर देखा जा रहा है। साल के अंतिम महीनों में टनकपुर से डाकपत्थर (तराई-भाबर- दून) यात्रा को अभियान के दूसरे चरण के रूप में आयोजित करने की योजना है।
अस बार की अस्कोट-आराकोट की छठी यात्रा विषयवस्तु /थीम “स्रोत से संगम” रखी गई है, ताकि नदियों से समाज के रिश्ते को गहराई से समझा जा सके। और जलागमों के मिजाज को समग्रता से जाना जा सके। इस यात्रा में यह समझने की कोशिश भी होगी कि पिछले पाँच दशकों और खासकर राज्य बनने के ढाई दशक बाद उत्तराखण्ड में कितने सकारात्मक और नकारात्मक परिवर्तन आये।

नया प्रयोग –
इस बार अस्कोट-आराकोट यात्रा में कुछ नए मार्गों में यात्रा करने की योजना भी है। कुछ ऐसे मार्गों जिनमें हुई महत्त्वपूर्ण यात्राओं का विवरण और यात्रावृत्तांत उपलब्ध है। जैसे- ह्वेनसांग की सातवीं सदी के पूर्वार्ध की पादरियों की पादरिय कालसी-गोविषाण (काशीपुर) यात्रा, आन्द्रादे आदि जैसुइट 1624 की हरद्वार-माजा-छपरांग यात्रा, डैनियल-चाचा-भतीजे की 1789 की नजीबाबाद से प्रारंभ गढ़वाल यात्रा, थॉमस हार्डविक की 1796 की कोटद्वार-श्रीनगर यात्रा, पंडित मैन सिंह और स्वामी विवेकानंद के कुछ यात्रा मार्ग, भूगर्भशास्त्री हीम तथा गानसीर की 1936 की यात्रा मार्गों में यात्रा करना। इनमें से कई यात्रा मागी के हिस्से मुख्य अभियान का हिस्सा होंगे हो।

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ऐसे बनें इस यात्रा के यात्री –
अस्कोट-आराकोट यात्रा में हर उस साथी का स्वागत है जो पहाड़ की जिन्दगी को जानने, उसमें सकारात्मक परिवर्तन करने या ठहराव तोड़ने में रुचि रखता हो। इच्छुक व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि यह यात्रा पहाड़ों में मनोरंजन या सैर-सपाटे के लिए नहीं है। पहले की तरह इस बार भी यात्रा को अधिकतम जनाधारित बनाने का प्रयास होगा। सभी से अपेक्षा की जाएगी कि दल के सदस्य अपने स्लीपिंग बैग, एक प्लेट तथा गिलास, पानी की बोतल जरुरी कपड़े (कुछ ऊनी भी), डायरी, कापी, कलम अवश्य रखें। कैमरा, रिकार्डर तथा हैंड माइक (चैलेंजर) की व्यवस्था हर दल में हो सके तो अच्छा होगा।

यात्रा का रूट-
पांगू, अस्कोर (पिथौरागढ़), मुन्स्यारी, नामिक, मानातोली, रैंणी, जोशीमठ, पीपलकोटी, गोपेश्वर, तुंगनाथ, मंडल, ऊखीमठ, फाटा, त्रिजुगीनारायण, घुत्तु, बूढ़ाकेदार, उत्तरकाशी, बड़कोट, पुरोला, त्यूनी, आराकोट (उत्तरकाशी) में समाप्त ।

यात्रा से जुड़ा संयोग –
इस यात्रा (अभियान) के साथ एक दुर्लभ संयोग भी जुड़ा हुआ है कि जिस वर्ष भी यह यात्रा हुई उसी वर्ष उत्तराखण्ड में कई बड़े सामाजिक आन्दोलन भी जन्में। 1974 में “चिपको आन्दोलन”, 1984 में “नशा नहीं रोजगार दो” आन्दोलन, 1994 में उत्तराखण्ड राज्य निर्माण आन्दोलन प्रखर होकर उभरना और साथ ही यमुना घाटी में धूम सिंह नेगी जी के नेतृत्व में “बीज बचाओ” आन्दोलन इस यात्रा को ऐतिहासिक अमरता प्रदान करते हैं। इस बार अस्कोट-आराकोट यात्रा परिवर्तन की किस लहर को जन्म देगी यह देखना होगा।

https://youtu.be/0ab7E1Heh_s?si=tXnhcNqsua4-qa__

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