रमन कृष्ण किमोठी
असिस्टेंट प्रोफेसर
रास बिहारी बोस सुभारती विश्वविद्यालय, देहरादून
बस एक ही उल्लू काफी था बर्बादे गुलिस्तां करने को, जब हर डाल पे उल्लू बैठा हो, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा!
भ्रष्टाचार शब्द ये तो अब भारतीयों के जीवन में अनुराग से शामिल हो चुका है। करोड़ों-अरबों के घेटाले की सूचना जब अखबारों, सोशल मीडिया या किसी टीवी चैनल से मिलती है, तो कुछ देर के लिए अचंभित होकर कुछ पलों में ही हम भूल जाते हैं।
सहसा भारतीय समाज किसी भ्रष्टाचार में बड़ी रकम को सुन उस मंद मुस्कान को दिखाता है, जैसे मानो भ्रष्टाचारी की क्षमताओं पर अभूतपूर्व गर्व महसूस कर रहा हो, वहीं जब कभी कोई छोटे रकम की हेराफेरी नजर में आती है, तो एक हताशा में दिखाई देते हैं। मानो कह रहे हां- बड़ा निराश किया आपने, ये भी कोई चोरी हुई?
अपने सामाजिक पतन की इस गहराई को छू चुका यह समाज भी जब कभी अपनी न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की खबर सुनता है, तो मानो उसकी वर्षों पहले की कुंभकर्णी नींद में सो चुकी आत्मा जैसे जाग जाती है और माथे पर भी चिंता की रेखाएं खिंच जाती हैं।
हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के प्रकरण को ही ले लें।

यह था मामला
मामला शुरू होता है 14 मार्च को, जब न्यायाधीश यशवंत वर्मा दिल्ली उच्च न्यायालय में कार्यरत थे और रात 11ः30 प्रशासन को उनके आवास पर आग लगने की सूचना प्राप्त होती है, जो आग किसी आम व्यक्ति के घर पर लगी होती, तो शायद हमारी सुस्त व आलस से भरी हुई व्यवस्था प्रस्थान हेतु ब्रह्म मुहूर्त की प्रतीक्षा भी कर सकती थी, परंतु घटनास्थल पर माई लॉर्ड के आवास का पता देख दमकल की गाड़ियां तेजी से घटनास्थल पर पहुंची।
वह आग बुझाने का कार्य प्रारंभ करने लगी। जैसे ही आग बुझी, न्यायाधीश वर्मा के स्टोर से 500 के नोटों की कई अधजली नोटों की गड्डियां कर्मचारियों के हाथ लग गई। मीडिया में इसे 5 से लेकर 15 करोड़ तक बताया गया। नोटो के वीडियो वायरल होने लगे और मामला शीर्ष अधिकारियों व मीडिया से होता हुआ उच्चतम न्यायालय के सम्मुख आ पहुंचा।
प्रथम दृष्ट्या मामले में न्यायपालिका की छवि धूमिल होता देख उच्चतम न्यायालय ने तत्काल प्रभाव से माई लॉर्ड वर्मा का स्थानांतरण इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कर दिया, परंतु न्याय की यह कार्यवाही ना तो किसी विधि विशेषज्ञ के गले उतरी और ना ही आम जनता के।
सभी की उत्कंठाओं को समाप्त करते हुए उच्चतम न्यायालय ने पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सील नागू के नेतृत्व में तीन सदस्य इन हाउस जांच समिति को मामले की जांच के आदेश दिए।
समिति द्वारा 53 लोगों से की गई पूछताछ के बाद न्यायाधीश वर्मा को संदिग्ध पाते हुए रिपोर्ट उच्चतम न्यायालय को सौंप दी गई है। वह तत्कालीन उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने इसकी सूचना राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को भेजते हुए निष्कासन की अनुशंसा कर दी और इसके साथ ही गेंद संसद के पाले में आ गई।
यह है न्यायाधीश के निष्कासन की प्रक्रिया
दरअसल भारतीय गणराज्य में न्यायाधीशों के निष्कासन की प्रक्रिया विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के समन्वय पर आधारित है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 124(4),(5), अनुच्छेद 218 व न्यायाधीश जांच अधिनियम 1968 इसकी प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं, जहां इसकी शक्ति संसद के दोनों सदनों को दी गई है।
इसके तहत न्यायाधीश के निष्कासन की कार्यवाही लोकसभा व राज्यसभा दोनों में से किसी भी सदन में शुरू की जा सकती है, जो कि पांच चरणों से होकर गुजरती है। पहला चरण-यदि लोकसभा में यह प्रस्ताव आता है, तो प्रस्ताव पर कम से कम 100 सांसदों का अनुमोदन होना आवश्यक है, तो वहीं राज्यसभा के लिए यह 50 सांसद हैं।
दूसरे चरण में यह अध्यक्ष (लोकसभा)/सभापति (राज्यसभा) के विवेक पर आधारित होता है कि वह इस प्रस्ताव को स्वीकार करें या ना करें। यदि वह प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं, तो कार्यवाही रुक जाती है, परंतु यदि वे इसे स्वीकार कर लेते हैं, तो प्रस्ताव अपने तीसरे चरण में जाता है, जहां एक तीन सदस्य जांच समिति (सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ,एक अनुभवी न्यायविद्) न्यायाधीश की सत्यनिष्ठा व प्रकरण की सच्चाई की जांच करते हैं।
इसके बाद ही चौथे चरण की शुरुआत होती है, जहां दोनों सदनों से प्रस्ताव को 2/3 के विशेष बहुमत से अलग-अलग पारित करवाया जाता है। ऐसा होते ही जांच अपने अंतिम चरण में पहुंचती है, जहां राष्ट्रपति न्यायाधीश के निष्कासन का आदेश जारी करते हैं और न्यायाधीश का निष्कासन पूर्ण मान लिया जाता है।
पूर्व में ये भी रहे मामले
हालांकि 1993 में न्यायाधीश वी.रामास्वामी के मामले में जांच प्रारंभ हुई, परंतु मतदान में प्रस्ताव पारित न हो सका। वहीं 2018 में देश के 45वें मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर भी प्रस्ताव लाया गया, परंतु सभापति द्वारा अस्वीकार कर दिया गया।
यदि निष्कासित हुए, तो पहले न्यायाधीश होंगे जस्टिस वर्मा
इस प्रकार स्वतंत्र भारत में आज तक कभी भी किसी माई लॉर्ड को इस रूप से न्याय प्रणाली से बाहर नहीं किया गया, लेकिन न्यायाधीश यशवंत वर्मा के मामले में जहां सत्ता पक्ष 145 सांसदों के साथ लोकसभा में इस प्रस्ताव को लाने के लिए उत्सुकता से प्रयास कर रहा था, वहीं आमतौर पर निष्क्रिय दिखते विपक्ष ने 63 राज्यसभा सांसदों के हस्ताक्षर के साथ प्रस्ताव राज्यसभा में पेश कर दिया।
वहीं, राज्यसभा के पूर्व सभापति/पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के द्वारा प्रस्ताव को जितनी तेजी के साथ स्वीकार किया गया, उसने भी स्थिति को रोचक बना दिया।
अब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे के बाद क्या न्यायाधीश वर्मा के निष्कासन का प्रस्ताव बाकी तीन चरणों को पूरा कर उन्हें भारतीय परंपरा का पहला निष्कासित न्यायाधीश बनाएगा या नहीं, यह प्रश्न तो फिलहाल भविष्य के गर्भ में छुपा है, परंतु इस घटना ने न्याय के उस सिद्धांत को जरूर परिपक्व किया है, जो प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता व कानून के समान उपचार की भावना को सुनिश्चित करता है। फिर चाहे वह आम नागरिक हो या शक्तिशाली प्राधिकारी, उसे अपने कृत्यों हेतु समान रूप से संवैधानिक विधि के समक्ष जवाबदेह बने रहना होगा । क्योंकि यहां न्यायाधीश के ऊपर भी न्यायाधीश है, जो कभी भी आवाज लगा सकता है- माई लॉर्ड हाजिर हो…!
जस्टिस वर्मा की याचिका पर सीजेआई ने सुनवाई से किया इंकार
जस्टिस वर्मा की याचिका पर सुनवाई के मामले में मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने सुनवाई से खुद को अलग कर लिया है।
सीजेआई जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ के समक्ष जस्टिस वर्मा के वकील कपिल सिब्बल ने मामले को तत्काल सूचीबद्ध करने का अनुरोध किया, लेकिन सीजेआई बीआर गवई ने कहा कि जस्टिस वर्मा के मामले में गठित जांच समिति के वे स्वयं सदस्य थे, इसलिए उनका इस मामले में सुनवाई करना संभव नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में अपनी याचिका में जस्टिस वर्मा पर महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने की सिफारिश को भी चुनौती दी है। जस्टिस वर्मा का कहना है कि आंतरिक जांच समिति ने उन्हें जवाब देने का अवसर दिए बिना ही निष्कर्ष निकाल लिए।

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