उमा घिल्डियाल
विश्व का सबसे बड़ा मेला ‘कुम्भ’। अत्यन्त पवित्र समय, पवित्र- संयोग, पवित्र महात्म्य, सब कुछ पावन! सबके लिये आकर्षण! कुछ इहलोक का और कुछ परलोक का।
आकर्षण है, व्यवस्थायें हैं, संस्कार हैं, दर्शन है, आत्मा की गति है, कत्र्तव्य है, नियम है, अनुशासन है, परमात्मा की लालसा है। पुण्य का भागी बनना है, फिर भगदड़ क्यों, धक्कामुक्की क्यों?
जिस त्रिवेणी में सब डुबकी लगा रहे हैं, वह शान्त है। सबको नहला रही है। सबको धो रही है। उसने अपनी चाल नहीं बदली। फिर हम इतने अशान्त क्यों? क्या करने के लिये गये हैं हम? भक्ति का अर्थ तो आराध्य जैसा बन जाना होता है। शान्त, निःस्पृह!
चार स्थानों पर कुम्भ क्यों होते हैं, इसलिये कि एक ही स्थान पर भीड़ का दबाव न हो। भक्तों को दूर न जाना पड़े। साधु-सन्तों के लिये नियम है-चरैवेति-चरैवेति। इसलिये वे हर स्थान पर जा सकते हैं।
चारों मठों के शंकराचार्य एकत्रित हो वर्तमान पर विचार-विमर्श करते हैं, परन्तु गृहस्थी। अमृत-बेला पर अखाडों का स्नान होता है फिर भीड़ कैसे? समझ में नहीं आता कि हम इन पर्वों का वास्तविक उद्देेश्य क्यों नहीं समझ पा रहे हैं।
व्यवस्थाओं की एक सीमा होती है। प्रयाग की धरती को फैलाया नहीं जा सकता। फिर क्या करें? त्रिवेणी तो सदैव पवित्र है। मुख्य पर्वों को छोड़ कर किसी भी दिन नहाया जा सकता है।
इस अवसर पर ब्रह्मचारी जी की ये पंक्तियाँ स्मृति होती हैं- ”हे माँ गंगे! तेरे दर्शन मात्र से मुक्ति मिल जाती है और मुक्ति से आगे मुझे कुछ नहीं चाहिये।“
दिवंगत भक्तों को नमन! घायल शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करें।