शेखर पाठक को 16वां अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति-सम्मान

वीरेन नंदा

प्रोफेसर शेखर पाठक को यह सम्मान उनकी नवीनतम पुस्तक ‘हिमांक और क्वथनांक के बीच’ के लिए प्रदान किया जाएगा। पुस्तक एक अनूठे हिमालयी यात्रा वृत्तांत पर आधारित है, जिसमें उन्होंने गंगोत्री-कालिंदीखाल और बदरीनाथ की दुर्गम यात्रा का सजीव चित्रण किया है।

अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति समिति के अध्यक्ष वीर भारत तलवार ने इस सम्मान की घोषणा की। यह पुरस्कार हल्द्वानी में आयोजित एक समारोह में नवंबर 2025 में औपचारिक रूप से प्रदान किया जाएगा।

यात्रा के माध्यम से समाज और प्रकृति का विश्लेषण

‘हिमांक और क्वथनांक के बीच’ केवल एक यात्रा-वृत्तांत नहीं, बल्कि हिमालय की पारिस्थितिकी, संघर्षशील जीवनशैली और को दर्शाती है।

यह कृति गंगोत्री-कालिंदीखाल और बदरीनाथ की दिल दहला देने वाली दुस्साहसिक यात्रा वृतांत है, जिसमें हिमालय की नैसर्गिक सुंदरता, हिम और गल की अनसुनी-अनजानी आवाज़ और अनचीन्हे पशु-पक्षियों के दर्शन तो होते ही है, मौत से मुलाक़ात भी। क्योंकि इस यात्रा में उन्हें अपने इतने क़रीब मौत की परियाँ पहले कभी नाचते हुए महसूस नहीं हुई थीं।

आदिम राग गाते हिमालय के इस अनजाने रास्ते पर यात्रा करने का जोख़िम उठाने वाले शेखर पाठक ने इस पुस्तक में अतीत में पहली बार इस मार्ग से यात्रा करने वाले उन पर्वतारोहियों के इतिहास, उनके संघर्ष तथा उनके रचे साहित्य का उल्लेख किया है। दूसरी ओर उस इलाके में रहने वाले उन कुलियों का भी मार्मिक चित्रण किया है, जिन्हें बेगारी पर ख़ून जमा देने वाली ठंड में नंगे पाँव चलना पड़ता था।

यात्रा में उन्होंने उस मार्ग का चयन किया जिसमें बहुत कम लोग जाते हैं क्योंकि यह न तो तीर्थयात्रा का मार्ग था और न व्यापारियों का।

वे कहते हैं कि पुण्य-परलोक से जुड़ा न होने के कारण यह पौराणिक कथाओं से भी बच गया और स्वर्ग जाने का भी यह रास्ता न बन सका। बेचैन हिमालय प्रेमियों ने हीं इस अनजाने मार्ग का नक्शा उकेरा है। यात्रा में जब मौसम ख़राब होता है, हिमस्खलन होने लगता है, बारिश और ओले कहर बरपाते है, नदियाँ उफनाती है, सामान बह जाता है, जूते भींग जाते हैं, अंधकार छाने लगे और दियासलाई भींगी बिल्ली बनी बैठी हो, टॉर्च की रोशनी भी काम ना आये।

एक क़दम बढ़ाना मुश्किल हो जाय, सहयात्रियों का देह अकड़कर गिर पड़े तो लेखक ख़ुद को ‘हिमांक और क्वथनांक के बीच’ खड़ा पा कहता है कि मौत हमारे आसपास मंडरा रही थी। वह किसी को भी दबोच सकती थी। यहाँ आज उसी का राज़ था। हमारे शरीर लगातार हिमांक के पास थे और हमारे मन मस्तिष्क में भावनाओं का उबाल क्वथनांक से ऊपर पहुँच रहा था और यात्रा से लौटते हुए उन्हें लगता रहा जैसे मुर्दाघाट से वापस लौट रहे” हों।

इसके बावजूद इन्होंने फ़िर फ़िर यात्राएँ की। मानसरोवर और नेपाल से सटे पूर्वी उत्तराखण्ड से पश्चिम उत्तराखण्ड तथा लेह से अरुणाचल तक की यात्रा शामिल है।



पूर्वी कुमाऊँ के गंगोलीहाट, वर्तमान जिला पिथौरागढ़ (उत्तराखण्ड) में 1950 में जन्में शेखर पाठक, नैनीताल के कुमाऊँ विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक रहें हैं। चिपको आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता और हिन्दी साहित्य के गहरे अध्येता भी हैं जो इस पुस्तक में दिखता है।

पहाड़ पर विकास के नाम प्रकृति से छेड़छाड़ पर प्रश्न खड़ा करने वाले, हिमालय पर बढ़ते प्लास्टिक के कचरे आदि पर चिन्ता करने वाले शेखर पाठक नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी, दिल्ली तथा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के फैलो रह चुके हैं।

देश में बढ़ती असहिष्णुता के विरुद्ध अपना पद्मश्री लौटाने वाले शेखर पाठक की ‘कुली बेगार प्रथा’, ‘बद्रीदत्त पाण्डेय और उनका युग’, ‘पंडित नैनसिंह की जीवन यात्रा’, ‘कुमाऊँ हिमालय : प्रलोभन’, ‘हरी भरी उम्मीद : चिपको आंदोलन’, ‘नीले बर्फीले स्वप्नलोग’ आदि चर्चित पुस्तकें हैं।

https://youtu.be/sLJqKTQoUYs?si=qV7N33CRjtZfDD82
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