रीजनल रिपोर्टर

सरोकारों से साक्षात्कार

धराली का भयावह सबक

डॉ. सुशील उपाध्याय

Test ad
TEST ad

उत्तरकाशी आपदा की गंभीरता को समझना हो तो 12 साल पहले की केदारनाथ त्रासदी को याद करना होगा। उत्तरकाशी जिले में कम से कम तीन जगहों पर बहुत कम अवधि में बादल फटे हैं और उनका परिणाम धराली गांव के एक बड़े हिस्से के गायब होने के रूप में सामने आया है।

कितने लोगों ने अपनी जान गंवाई है, इसका अभी अनुमान लगाना भी संभव नहीं है। लेकिन, यह संख्या बहुत बड़ी होगी, यह तय है।

उत्तराखंड में (और पड़ोसी हिमाचल में भी) बादल फटना, भूस्खलन, पहाड़ दरकना-धंसना, नदियों का विकराल रूप धर लेना और अचानक ग्लेशियर फटना बेहद आम घटनाएं हो गई हैं। जो एक डरावना संकेत है।

ऐसी हर एक घटना के बाद आमतौर पर प्रकृति को दोष दिया जाता है और भगवान से बचाने की गुहार लगाई जाती है, लेकिन इन दोनों से बात नहीं बनती।

उत्तराखंड गठन के 25 साल में पहाड़ों में जितने व्यापक पैमाने पर निर्माण कार्य हुए हैं, हो रहे हैं और लोगों की आवाजाही बढ़ी है, वह चौंकाने वाली है।

ये त्रासदियां संकेत दे रही हैं कि विकास के नाम पर प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ हुआ है, उसकी कीमत अब लगातार चुकानी होगी।

पहाड़ के आम जीवन में यह मान्यता है कि नदी अपने खोए हुए (बल्कि बिल्डरों द्वारा कब्जाए गए) रास्ते पर वापस जरूर आती है, भले ही 100 साल के अंतराल पर आए। धराली में नदी के प्रचंड वेग और उसके साथ बड़ी-बड़ी इमारतों, होटलों, घरों के बहने का दृश्य भयावह था, लेकिन इसके लिए नदी बिल्कुल दोषी नहीं है।

धराली की भयावह त्रासदी

पहाड़ में प्राकृतिक आपदाएं नई नहीं हैं, ना ही इन्हें पूरी तरह रोका जा सकता है, लेकिन उनकी आवृत्ति और तीव्रता में बढ़ोतरी स्वाभाविक नहीं, बल्कि स्पष्ट रूप से मानवीय हस्तक्षेप का परिणाम है।

अगर मोटे तौर पर देखें तो वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण भी हिमालयी क्षेत्र के मौसम में असामान्य परिवर्तन दिख रहे हैं। वर्षा का पैटर्न असंतुलित हो गया है। कभी महीनों तक सब कुछ सामान्य रहता है और फिर कुछ ही घंटों में मौसम तांडव करने लगता है। बादल फटना, जो पहले कभी कभार की घटना थी, अब हर बारिश में बार-बार सामने आ रही है।

प्रदेश में विगत दशकों में अनियंत्रित और अनियोजित विकास ने भी परेशानी बढ़ाई है। केदारनाथ आपदा, नाचनी गांव आपदा, रैनी गांव आपदा, जोशीमठ का नीचे धंसना, और धराली की आपदा एक भयावह संकेत कर रही है कि कुछ दशकों बाद उत्तराखंड में कई रूपकुंड (जहां आज भी हजारों नरकंकाल बिखरे हुए हैं) होंगे।

उत्तराखंड में चारधाम यात्रा के नाम पर जो ऑल वेदर रोड बनाई जा रही है, वह यहां के पहाड़ों के मिजाज के अनुरूप नहीं है। कच्चे पर्वतीय ढलानों को काटकर बनाई गई चौड़ी सड़कों ने पहाड़ों की आंतरिक संरचना को कमजोर किया है। इससे भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं।

सरकार यहां आने वाले लोगों के लिए सुविधाएं विकसित करने पर जोर दे रही है, लेकिन यह समझने की जरूरत महसूस नहीं की जा रही है कि उत्तराखंड और यहां का पहाड़ी इलाका बाहरी लोगों की अनियंत्रित आवाजाही के लायक नहीं है।

लोग इतने बेपरवाह हैं कि वे इन दिनों भी बड़ी संख्या में चारधाम यात्रा पर आ रहे हैं। पिछले सप्ताह ही सरकार ने करीब 5 हजार लोगों को केदारनाथ के रास्ते बमुश्किल सुरक्षित निकाला है। पर्यटकों की हर साल बढ़ती संख्या यहां के बुनियादी ढांचे पर दबाव पैदा कर रही है।

नदी किनारे बसाहट और अवैज्ञानिक निर्माण ने भागीरथी, मंदाकिनी, अलकनंदा जैसी बड़ी नदियों से लेकर छोटी बरसाती नदियों तक के किनारों को होटलों, होमस्टे और बाजारों से ढक दिया है।

यह निर्माण आर्थिक दृष्टि से भले ही लाभदायक लगे, लेकिन ये आपदा प्रबंधन के मानदंडों पर खरे नहीं उतरते। बाढ़, भूस्खलन या मलबे की घटना इन्हें पूरी तरह नष्ट कर देती है, जैसा धराली में देखने को मिला।

इस परिप्रेक्ष्य में बड़ा सवाल यह कि क्या सरकार, प्रशासन और लोगों ने इन संकेतों से कुछ सीखा है? हर त्रासदी के बाद राहत और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया तो आरंभ होती है, लेकिन दीर्घकालिक समाधान और नीतिगत परिवर्तन नदारद रहते हैं।

कई बार तो ऐसा लगता है कि आपदाएं कुछ ठेकेदारों और परियोजना संचालकों के लिए लाभ का माध्यम बन जाती हैं। इन सभी घटनाओं ने यह भी स्पष्ट किया है कि उत्तराखंड की आपदा प्रबंधन प्रणाली में खामियां हैं।

अग्रिम चेतावनी, स्थानीय प्रशिक्षण, सुरक्षित स्थानों की पहचान जैसे बुनियादी प्रावधान अब भी अधूरे और अपर्याप्त दिख रहे हैं। धराली में लोगों को इतना अवसर भी नहीं मिला कि खुद को बचाने के लिए ऊंचे स्थानों की ओर जा पाते।

यदि ग्रहण किया जा सके तो आज का सबक यही है कि हिमालयी राज्यों में विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन की स्पष्ट नीति बने।

नदी किनारे निर्माण पर सख्त प्रतिबंध हो, सड़क निर्माण से पहले भू-वैज्ञानिक सर्वे के निष्कर्षों को स्वीकार किया जाए और बड़े प्रोजेक्ट्स के पर्यावरणीय प्रभावों को गंभीरता से लिया जाए। अन्यथा हम लाशें गिनते रह जाएंगे।

उत्तराखंड की त्रासदियां साफ चेतावनी दे रही हैं कि यदि अब भी सबक नहीं लिया गया, तो यह क्षेत्र केवल धार्मिक पर्यटन का केंद्र नहीं, बल्कि पर्यावरणीय आपदाओं का स्थायी ठिकाना बन जाएगा।

नीतिगत और व्यवस्थागत सुधार तथा इनका सही क्रियान्वयन न हुआ तो यकीन मानिए, भविष्य की त्रासदियां और भी भयावह होंगी। और भी कई रूपकुंड होंगे!

https://regionalreporter.in/cloudburst-in-uttarkashi-causes-devastation-in-dharali/
https://youtu.be/9QW0uH_UIwI?si=TlvqJN5PANmylX5W
Website |  + posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: