जगमोहन चोपता
बीते दिनों तपती दोपहरी में गैरसैंण से गोपेश्वर के लिये आ रहा था। जंगलचट्टी के नजदीक धार पर एक बुजुर्ग महिला ने हाथ देने के साथ ही जोर से आवाज दी बब्बा बैठेल दये, गेड़ी नि मिलुणी।
उनको बिठाने के लिये मैंने गाड़ी रोक ली। गाड़ी में चढ़ते ही वे कहने लगी भौत देर हो गई कोई गाड़ी वाला रूका ही नी रहा है। अजकाल गाड़ियों की भौत दिक्कत हो गई है। मैंने हामी में सिर हिलाते हुये गाड़ी चलानी शुरू की।
थोड़ी देर चुप्पी के बाद उन्होंने बात शुरू करने के लिये कहा बब्बा हमारे गांव में खूब बर्फ पड़ती है हम बर्फ को पचा सकते हैं लेकिन आज जितना घाम लग रहा है इसको पचाना हमारे बस का नहीं है।
मैंने फिर से सहमति पर सर हिलाया। और उनको कहां जाना है पूंछा। उन्होंने बताया कि वे अपनी दीदी की याद खबर करने जा रही हैं। सिमली के नजदीक किसी गांव में उनकी ससुराल है।
फिर तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। उन्होंने हमारी कुण्डली बांची तो मैंने भी उनके गांव-घर मे अजकाल खेतों में हो रहे काम धंधे को लेकर बात की।
खैर आखिर उनको जिस गांव जाना था वो दिखने लगा। बुजुर्ग महिला ने अपने एक बैग से छोटा सा पर्स निकाला और उसमें से दो सौ का नोट अपनी मुट्टी में कसकर पकड़ लिया और पर्स को फिर से बैग में रख दिया। गांव की पहली दुकान आने पर उन्होंने रूकने का इशारा करने के साथ कहा बस यखी रवैक दे बबा।
मैंने गाड़ी रोकी तो उतरते हुये उन्होंने 200 रूपये का नोट देने के लिये आगे बढ़ाया। मैंने रूपये लेने से मना करते हुये कहा बोडी यू किराया वैल गैड़ी निच हो।
उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान तैर गई अभी यह मुस्कान पूरे चेहरे पर फैलती उससे पहले उन्होंने फुर्ती के साथ पूछा बबा काफल खाओगे, मेरी हां न से पहले उन्होंने अपने बैग से काफल कह कुछ छोटी-छोटी थैलियों में से एक थैली निकाली और मेरी ओर पकड़ा दिया।
मैंने मना करते हुये कहा कि आप अपनी दीदी के लिये ले जा रही हो वहां दे दीजिएगा। हमने कल ही गैरसैण में काफल खाये थे।
उन्होंने इस बार थोड़ा अपनत्व और जोर देकर कहा, बबा तुम्हारी उमर के ही मेरे बेटे और बेटियां हैं बस तुम भी बेटे ही समझ लो। काफल ले लो, मैंने दीदी के लिये और लाये हैं, ऐसा कहते हुये उन्होंने आगे की सीट पर थैली रख थी।
मैंने कहा इसका रूपया ले लिजिए, फिर से उन्होंने कहा तुम भी तो मेरे लड़ीक जैसे हो और वे अपने झोले कंधे और हाथ पर लटकाएं निकल पड़ी।
उनके जाने के बाद मन ही मन सोच रहा था कि आज भी दो सभ्यताएं समांतर चल रही हैं। एक ओर गांव की सहजीवन और आत्मीयता से सराबोर सभ्यता। दूसरी ओर गलाकाट दौड़ से युक्त नगरीय सभ्यता।
गांव की सभ्यता जहां जाओ बोडी की तरह आत्मीयता फैलाती है और हम नगरीय जनों की सभ्यता पर्यटन, तीर्थाटन और पता नहीं क्या-क्या टन टन की अंधी दौड़ में यहां के ग्रामीण जीवन और जातकों की खैणी नी खेणी करते हैं।
खैर आज बोडी की कृपा से काफलपार्टी हो गई। आप लोगों ने चाखा काफल! जब खाला त ल्वौण मर्च और घर्या त्यौल भी मिलाया हो!