मां श्रीराजराजेश्वरी व श्री प्राचीन सिद्धपीठ देवलगढ़ में नवरात्र विशेष पूजन की तैयारी हो चुकी है। आमावस्या रात्रि को विशेष हवन के साथ प्राचीन परम्परानुसार तीन अक्टूबर प्रातः शुभघड़ी में माँ श्रीराजराजेश्वरी जी, श्री महिषमर्दनी जी और श्री बालात्रिपुर सुंदरी जी की डोलियों को उन्नत श्रीयंत्र, श्री महिषमर्दनी यंत्र और श्री कामेश्वरी यंत्र विशेष शृंगार सहित तिमंजिले भवन की तृतीय मंजिल से द्वितीय मंजिल के विशेष कक्ष में विराजमान कर दश महाविद्याओं काली, तारा, पोढ़षी (श्रीराजराजेश्वरी), भैरबी, भुवनेश्वरी, मातंगी, धूमावती, बगलामुखी, छिन्नमस्तका और कमला के नाम से हरियाल बोई जाती है।
कुल तथा गुरु परम्परा श्री गणेश, कुल देवता श्री बटुक भैरव, श्री नागराजा, श्री नृसिंह, श्री क्षेत्रपाल, श्री घंडियाल, एकादश रुद्र श्री हनुमान जी व पितरों के साथ श्रीयंत्र केन्द्रित विशेष पूजा, जप और हवन विशेष किया जाता है। सिद्धपीठ की प्राचीन परम्परानुसार भगवती के नये झंडे चढ़ाये जाते हैं। जौ की हरियाली को प्रकृति स्वरूपा महामाया मानते हुए प्रथम नवरात्र से नवमी तिथि तक विशेष पूजन किया जाता है और नवरात्र के समय दिन के साथ नित्य रात्रि हवन किया जाता है।
श्री विशयादशमी तिथि माताश्री को पुनः ऊपरी मंजिल के विशेष कक्ष में स्थापित करने व यज्ञ के उपरान्त दशमहाविद्याओं ने नाम की हरियाली को प्रसाद स्वरूप बांटने की प्राचीन परम्परा आज भी यथावत है। नवरात्र की हरियाली व हवन की बभूत देवलगढ़ सिद्धपीठ से भक्तों को डाक द्वारा भी भेजी जाती है।
गढ़वाल राजखानदान व उनसे सम्बन्धित पंवार, परमार, भण्डारी, कण्डारी, रावत, रौतेला, कुंवर, बिष्ट, धनाई, चैहान, नेगी, बुटौला, रौथाण, रमोला, गुसांई आदि के साथ उनियाल, नौटियाल, डोभाल, रतूड़ी, खण्डूड़ी, जोशी, बिजल्वाण, सकलानी, गैरोला, पोखरी के बहुगुणा, बारहपंथी योगियों व पूज्य शंकराचार्यों आदि द्वारा सुपूजित, श्रीविद्या की विशेष पूजा का विशेष महत्व तंत्र शास्त्रों में बताया गया है।
बताया जाता है कि सन् 1948 ई. तक नवरात्र की विशेष पूजा व अनुष्ठान के सारी व्यवस्थाएं नौटियाल राजगुरु किया करते थे और कोठी अंदर की पूजा में पोखरी के बहुगुणा, मासों के डंगवाल, ज्योतिषाचार्यों व श्रीविद्या उपासकों का बड़ा योगदान रहता था किन्तु 1949 में टिहरी स्टेट के भारत सरकार में विलीनीकरण उपरान्त हर साल में आयोजित होने वाली महापूजा की परम्परा समाप्त होने के कारण कई पंडित व यजमान परिवार सिद्धपीठ से दूर हो गये। फिर भी पुजारी परिवार द्वारा विशेष पूजा परम्परा को यथावत बनाए रखा गया है।
भगवती श्री राजराजेश्वरी को तंत्र शास्त्रों में बाला, बालत्रिपुुर सुंदरी, त्रिपुर भैरबी, त्रिभुवनेश्वरी, कामेंशी, ललिता, महात्रिपुर सुंदरी, षोढ़षी, श्री विद्या आदि नामों से भी जाना जाता है।
सिद्धपीठ में अखण्ड ज्योति व दैनिक हवन की परम्परा यथावत रहने के कारण इस पीठ को उत्तराखण्ड में जागृत सिद्धपीठ माना जाता है। मैथिल ब्राह्मण उनियाल इस सिद्घपीठ के परम्परागत पुजारी हैं। नवरात्र के अवसर पर दूर-दूर से भक्तगण देवलगढ़ पहुंचकर माताश्री राजराजेश्वरी व श्री गौरी जी का आशीर्वाद प्राप्त कर प्रसन्न मन से वापस जाते हैं।
देवलगढ़ श्रीराजराजेश्वरी सिद्धपीठ की तर्ज पर ही श्रीनगर गढ़वाल स्थित श्री बगलामुखी पीठ में भी प्रथम नवरात्र को हरियाली बोने, झण्डा चढ़ाने के साथ विशेष पूजा व हवन का विधान है तथा दशमी तिथि विशेष हवन के उपरान्त हरियाली वितरण किया जाता है।