राजनीति से तंग आकर जब कुंडली दिखाने पहुंचे मनमोहन सिंह

गौरव नौडियाल

यूनिवर्सिटी में अपने कॉलिग को जन्मपत्री दिखाने पहुंच गए मनमोहन सिंह!

साल था 1964 का. डॉ. मनमोहन सिंह का तब राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। स्वभाव से संकोची मनमोहन सिंह तब तक रीडर से पंजाब यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हो चुके थे। यूनिवर्सिटी में पॉलिटिक्स भी जमकर होती थी..मनमोहन सिंह भी शिकार हुए. शुरुआत से ही कामकाजी स्वभाव के मनमोहन सिंह धीरे-धीरे यूनिवर्सिटी की पॉलिटिक्स से आजिज आ गए। यूनिवर्सिटी की राजनीति ने मनमोहन सिंह को इतना परेशान कर दिया था कि वो यूनिवर्सिटी छोड़ने, न छोड़ने के सवाल से परेशान थे! फिर न जाने क्या सूझा..किसकी सलाह मिली। वो इस परेशानी का हल तलाशने अपने ही एक सहकर्मी जो कि संस्कृति डिपार्टमेंट में थे, डॉ शशिधर शर्मा के पास पहुंचे! डॉ शर्मा को संस्कृत में उनके योगदान के लिए ‘महामहोपाध्याय’ और ‘शास्त्रार्थ महारथ’ जैसी उपाधियां भी मिली। साल 1962 में डॉ शर्मा की बहुचर्चित रचना वीरतरंगणी भी आ चुकी थी, जिसकी भूमिका फील्ड मार्शल जनरल केएम करिअप्पा ने लिखी थी। मूल रूप से उत्तराखंड के देवप्रयाग के रहने वाले, जो बद्रीनाथ का पंडा समुदाय भी है, डॉ. शर्मा कुंडली का अध्ययन करना जानते थे। ज्योतिष उनका विषय का हिस्सा भी था।

डॉ. शशिधर शर्मा और मनमोहन सिंह दोनों का मिजाज भी कुछ-कुछ एक जैसा ही था…एक ने संस्कृत में शोध का जिम्मा उठाया हुआ था और तब तक बड़ा नाम कमा लिया था, जबकि मनमोहन सिंह अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे। मनमोहन पहुंचे कि भैया पंडित जी अब कॉलेज में जी नहीं लगता! शर्मा जी ने कुंडली देखी, मुस्कुराए और कहा- ‘ख्वामख्वाह परेशान हो रहे हैं सरदार जी… अभी कहां पॉलिटिक्स हुई है! अब होगी शुरू…कुछ रोज आरै रुक जाइए!’ मनमोहन सिंह घबरा गए कि न जाने आगे क्या होगा…लेकिन कुछ ही वक्त बाद चीजें बदल गई और उन्हें यूनाइटेड नेशन कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट से बुलावा आ गया। यहीं से जीवन बदलता चला गया। मनमोहन सिंह कॉलेज की राजनीति से बचने के लिए भाग गए, लेकिन इसके बाद उनके जीवन में राजनीति प्रवेश कर गई, जिससे वो आखिरी दम तक बंधे रहे।

डॉ मनमोहन सिंह और डॉ. शशिधर शर्मा में अदब का ऐसा रिश्ता रहा कि जब मनमोहन सिंह को पहली दफा प्रधानमंत्री पद की शपथ लेनी थी, उस वक्त डॉ शर्मा को भी इसका निमंत्रण पहुंचा था…लेकिन जैसा कि मैंने शुरू में कहा, दोनों अपने काम में अंत तक मशगूल रहने वाले शख्स रहे। शर्मा ने प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण में जाने से बेहतर उस रोज भी अपनी पांडुलिपियों को खंगालना ही ज्यादा बेहतर समझा! क्या मालूम विषयों के गहरे अध्येता शायद ताउम्र ऐसे ही होते हों..खुद में डूबे हुए। जैसे खुद मनमोहन सिंह रहे। शर्मा अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन ये किस्सा उनके घर के भीतर अक्सर याद किया जाता रहा है।

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