दीवार

सुरेश उनियाल

उस दीवार की जड़ें शायद पहले से ही मौजूद है। अवसर पाते ही वह उठने लगी थी और लगातार उठती चली गयी थी, उन दोनों के बीच एक जीवित अस्तित्व की तरह। यह सब कुछ अचानक ही होने लगा था पर अप्रत्याशित नहीं था। उस दीवार में खास बात थी कि वह उठती तो उन दोनों की इच्छा से थी पर उठने के बाद कम नहीं होती थी, उनके चाहने पर भी।
वे दोनों एक-दूसरे से ऊब गये थे। किसी एक का कोई ऐसा काम जिसे दूसरा पसंद न करता इस दीवार को उठाने में मदद करता। उठाने को रोकने का प्रयास चाहकर भी कोई न कर पाता। वह दीवार भद्दे और बेडौल पत्थरों की थी जिस पर घिनौनी चिपचिपी काई की कई तहें जमी हुई थी। इसीलिए वे इसकी ओर देखते ही घृणा से मुँह बिचकाने लगते और पाते कि दीवार थोड़ी और उठ गयी।
उसकी गंभीरता का पता उन्हें तब लगा जब दीवार उनकी ऊँचाई से अधिक ऊँची हो गयी। एक दूसरे से इस प्रकार कट जाना दोनों को ही अच्छा नहीं लगा। पर दीवार की ऊँचाई कम कर पाना उनके वश से बाहर की बात थी। काफी प्रयास करने के बाद उन्हें दीवार में एक छेद मिल गया। इस छेद से वे एक-दूसरे की ओर झांकने में एक-दूसरे के आत्मीय हो जाते। इतने ही आत्मीय, जितने वे इस दीवार के पैदा होने से पहले थे।
यह छेद इतना बड़ा तो था कि आत्मीयता इसके बीच से गुजर सके। एक बार एक ने इसमें से होकर दूसरी ओर आने की कोशिश भी की तो वह उस में फँस गया। काफी बुरी तरह। वह जोर-जोर से चिल्लाने भी लगा। दूसरा उसका चिल्लाना सुनता रहा। उसे संभवतः खुशी हो रही थी उसे अपने कृत्यों की सजा मिलनी ही चाहिए। किसी की सीमाओं में घुसने का उसे क्या हक है। पर फिर भी इस डर से कि वह वापस अपनी तरफ जाने के बजाय इधर ही आकर गिरा तो वह उसकी सहायता के लिए पहुँचा और काफी परिश्रम करने के बाद उसे वापस उसकी ओर धकेल देने में सफल हो गया। धकेलने के बाद उसने हाथ झाड़े और माथे पर आये पसीने को पोछा। इसके बदले दूसरे ने उसे धन्यवाद दिया। अब वे एक दूसरे से धन्यवाद के आदान-प्रदान के प्रति काफी सचेत हो गये थे।
धीरे-धीरे दोनों को अपनी-अपनी ओर रहना अच्छा लगने लगा। दोनों ही महसूस करने लगे कि अपनी ओर रहकर ही सुरक्षित रहा जा सकता है। इसके बाद फिर किसी ने एक दूसरे की ओर आने की कोशिश भी नहीं की।
इस छेद की एक विशेषता का भी उन्हें पता चला कि इसका खुलना और बंद होना भी उनकी इच्छा पर निर्भर था, दीवार की उठान की तरह। पर एक बात अवश्य थी की एक बार बंद होने के बाद जब यह छेद फिर खुलता तो कुछ संकरा हो जाता। यह बात दोनों को ही अनुभव हुई और उन्होंने निर्णय किया कि वे इस छेद के बंद होने और खुलने की प्रक्रिया को कम से कम करने का प्रयास करेगे। अन्यथा यह छेद छोटा होते-होते हमेशा के लिए बंद भी हो सकता था। इस स्थिति का सामना करने के लिए वे दोनों ही तैयार न थे।
फल यह हुआ कि यह छेद अधिकतर बंद रहने लगा क्योंकि जब भी यह छेद खुला होता, दोनों एक-दूसरे को आमने-सामने खड़ा, अपनी ओर झांकता पाते। इससे उन्हें अपनी स्वछंदता में बाधा सी पड़ती अनुभव होने लगती। छेद के बंद रहने पर उन्हें स्वच्छंदता का अनुभव होता। पर छेद खुलने के बाद वे एक दूसरे को फिर अपनी ओर झांकने के लिए तत्पर पाते।
इस अतिक्रमण को रोकने का उन्हें एक उपाय सूझा। दोनों ने दीवार के अपनी-अपनी ओर खाईयाँ खोदनी शुरू कर दी। इससे एक लाभ यह भी हुआ कि काम में व्यस्त रहने के कारण उन्हें एक दूसरे की याद कम आती और उससे उत्पन्न होने वाली किसी भी प्रकार की आंशका से मुक्ति मिलती। उन्हें एक नयी बात भी मालूम हुई कि दीवार केवल ऊँची ही नहीं थी बल्कि उसकी जड़ें भी जमीन में काफी गहरी थी। जमीन के नीचे यह दीवार काफी मजबूत पत्थरों की थी और वह घृणित काई इस पर जमी हुई नहीं थी।
खोदते-खोदते खाई काफी चैड़ी और गहरी हो गयी थी। दोनों के पास अपने-अपने आसमान थे, अपने-अपने सूरज थे। इस जीने में उन्हें बहुत ही मजा आ रहा था। वे दोनों एक-दूसरे के अतिक्रमण के प्रति बिल्कुल निश्चिन्त थे। एक-दूसरे के प्रति किसी भी प्रकार के डर दायित्व से मुक्त। स्वतंत्र, स्वछंद जीवन के साथ।
अब वह छेद कभी खुलता तो वे प्रायः दोनों ही दूसरी ओर कुछ भी न देख पाते। कभी-कभी बहुत दूरी पर एक दूसरे के चेहरे भी देख लेते तो इस डर से अपने को हटा लेते कि कही दूसरा उसके चेहरे को देखकर इस ओर की स्थिति के बारे में कोई अनुमान न लगा बैठे। कभी उनके मित्र या परिचित उन्हें मिलते तो वे अपने-अपने आसमान और अपने-अपने सूरज उन्हें दिखाते लेकिन इससे पहले उस दीवार को अपने कपड़ों से ढकना न भूलते। ऐसे में यदि दूसरे का जिक्र आ जाता तो वे टाल जाते और फिर कोई भी अन्य विषय लेकर हाथ झटक-झटक कर और जोर-जोर से बोलने लगते ताकि वह परिचित या मित्र दुबारा उस प्रसंग को न छेड़ सके।
इसके बावजूद उन्हें एक दूसरे के बारे में जानने की काफी उत्सुकता थी। वे जानना चाहते थे कि दूसरा उनकी अनुपस्थिति में कैसे रहता है तथा क्या करता है? पर अब जानने का कोई रास्ता नहीं था। छेद खुलना बंद हो गया था। वे दोनों छेद खुलने की प्रतीक्षा में बैठे रहते पर छेद न खुलता।
तो फिर दीवार गिरा कर देखा जाय, दोनों ने सोचा। गहरी खाइयों के कारण वे दीवार के निकट तो पहुँच नहीं सकते थे। तो फिर………..
तो फिर एक उपाय उन्हें सूझ गया। किसी तरह दीवार को कमजोर किया जाय। दोनों ने खाइयों में पेशाब और कै करना शुरू कर दिया। दोनों ओर की खाइयाँ गंदगी से भरने लगीं। वे जानते थे कि खाइयाँ खोदने में जितना समय लगेगा, उन्हें कै और पेशाब से भरने में उससे अधिक समय लगेगा। वे प्रयत्न करते रहे। अनवरत। अथक। वह गंदगी धीरे-धीरे दीवार की जड़ में घुसकर उसे कमजोर बनाने लगी थी। और फिर वह दीवार गिर ही गयी। दोनों एक-दूसरे के सामने थे। एक दूसरे की ओर देखकर पहले तो उन्होंने हंसना शुरू किया। जोर-जोर से। बहुत देर तक! और फिर रोने लगे। फूट-फूट कर! चिल्ला-चिल्ला कर। दोनों के कपड़े फटे हुए थे। सड़ा-गला, वीभत्स शरीर। अपने-अपने वीभत्स रूप को छिपाने के लिए दोनों ही गंदगी वाली खाई में कूद कर एक-दूसरे से जा चिपके।
एक-दूसरे से चिपके होने के वाबजूद दोनों ही अपने पांवों के नीचे उस कठोर और खुरदुरी दीवार को अनुभव कर रहे थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: