नीरज नैथानी
उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी देहरादून में जमीन के प्लाट खरीदने वालों की असीम लालसा व अदम्य साहस को देखते हुए मेरा दिल भी स्वाभाविक रूप से एक अदद प्लाट खरीद लेने को मचल उठा। बस! फिर क्या था, मैं दिन-रात इसी उधेड़ बुन में खोया रहने लगा कि जैसे भी हो और जो भी जुगाड़ करना पड़े कम से कम एक प्लाट चाहे छोटा सा ही क्यों न हो और नगर क्षेत्र से कितना ही दूर क्यों न हो मुझे भी लेना ही है और हर हाल में लेना है। हालांकि राजधानी बनने के बाद से ही देहरादून व आस पास के इलाकों की जमीन के आसमान छूते रेट मेरा हौंसला पस्त किए जा रहे थे। इस वजह से जमीन के मामले में मेरी खुद की जमीनी हकीकत यह थी कि दून के इर्द-गिर्द कहीं भी प्लाट खरीद पाना मेरी हैसियत और औकात से बाहर की बात हो गई थी।
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लेकिन जब भी मेरी जानकारी में यह बात आती कि मेरे फलां रिश्तेदार, सगे सम्बन्धी, मित्र अथवा परिचित ने हाल ही में दून में प्लाट खरीदा है तो लाजमी तौर पर मैं भी सोचने लगता कि जब मेरी जैसी सामाजिक-आर्थिक हैसियत वाला यह अगला भाई प्लाट ले सकता है तो मैं क्यों नहीं। और यही वजह थी कि मैं फिर से प्लाट खरीदने की उधेड़ बुन में खो जाता। लेकिन जब किसी प्लाट की कीमत की बाबत पूछताछ करता और होश उड़ा देने वाले रेट सुनने को मिलते, तो स्व.जगजीत की गाई ग़जल गुनगुनाने लगता-आज फिर दिल में इक तमन्ना थी,आज फिर दिल को हमने समझाया………।
लेकिन ज़नाब उस वक्त दिल को समझाना बहुत ही मुश्किल हो जाता है, जब कोई फितूर लगातार दिमाग में उथल-पुथल मचाने पर आमादा हो और फिलहाल मैं भी इसी दौर से गुजर रहा था। फिर अपनी परेशानी को मुकम्म़ल तौर पर सुलझानेे का अचानक एक तरीका मुझे सुझाई दिया। मेरी अपनी जान पहचान के एक जनाब जो कि दून के ही वाशिन्दे हैं तथा जमीन की खरीद फरोख्त में अच्छा खासा दखल रखने के लिए मशहूर हैं का मुझे खयाल हो आया, तो मैंने उसी वक्त उन्हें फोन लगाया। औपचारिक हलो हाय के बाद जब मैंने उसे असल मुद्दे से वाक़िफ कराया, तो उन्होंने दोस्ताना लहजे में मुझे समझाया, देखो भाई, शहर के अन्दर के इलाके में तो जमीन के भाव करोड़ों से ऊपर ही चल रहे हैं लेकिन यदि थोड़ा बाहर की ओर जैसे कि जोगीवाला, बाला वाला, मियांवाला, हर्रावाला, कुंआवाला, डोईवाला,भानियावाला,जीवनवाला वगैरह की तरफ भीतर की ओर ना चाहो, तो मैं तुम्हें प्लाट दिखा देता हूं। उनके प्रोत्साहन रूपी लुभावने प्रस्ताव ने तत्काल मेरे मन में अनेक काल्पनिक प्लाटों के चित्र उभार कर रख दिए। अपने मन में उठ रही जिज्ञासा को दबाने की असफल चेष्टा करते हुए मैंने उससे पूछा, अच्छा आजकल इन इलाकों में क्या रेट चल रहा है? उन्होंने जवाब दिया, वैसे तो प्लाटों के कोई फिक्स रेट नहीं होते।क्योंकि जब जहां जैसा ग्राहक मिल जाए, वैसा सेटलमेंट हो जाता है, लेकिन आप अपने आदमी हैं इसलिए 10-15 लाख के हेर फेर में कोई बढ़िया प्लाट दिलवाने की पूरी कोशिश करूंगा। दस-पन्द्रह लाख सुनते ही मुझे तो सांप सूंघ गया। मैंने मन ही मन हिसाब लगाया मुझ जैसे मध्यम वर्गीय को तो इतनी बड़ी रकम शायद रिटायरमेंट पर जाकर ही नसीब हो।
थोड़ा सकुचाते हुए जब मैंने उन्हें अपनी हकीकत से वाक़िफ कराया, तो उन्होंने कहा, इससे कम में तो बहुत मुश्किल है फिर भी यदि मेरी जानकारी में आया, तो बताऊंगा और ऐसा कहते ही उस तरफ से बिना देरी किए फोन काट दिया गया। इससे में कम बहुुत मुश्किल है……………. शब्द बार-बार मुझे दिल में चोट करते महसूस हो रहे थे। फिर मैं एक-एक कर अपने उन परिचितों के बारे में सोचने लगा,जिन्होंने हाल ही में देहरादून में जमीन खरीदी थी बल्कि कुछ एक ने तो आलीशान मकान तक बनवा लिए थे। ग़जब बात यह थी कि सभी की सामाजिक, आर्थिक स्थिति लगभग मेरे जैसी ही थी। सोचते-सोचते मैं खयालों में ही दूसरों के खर्चाें का हिसाब किताब लगाने में मशगूल हो गया। उसे लगभग इतनी तनख्वाह मिलती होगी……….. इतना बच्चों की फीस…,पढ़ाई का खर्च…., दूध….,अखबार…..,टेलीफोन…..,गैस…..,राशन पानी.…..,मकान का किराया……आखिर जमीन के लिए अगले ने इतनी बड़ी रकम कहां से जुटाई होगी? तभी मुझे अपने चचेरे भाई साहब का मामला याद हो आया…….. https://regionalreporter.in/ankita-ke-mata-pita-ne-dharna-chhoda/
वे नौकरी के शुरुआती दौर में एक बार ट्रान्सफर होकर उत्तरकाशी क्या गए कि वहीं के होकर रह गए। उत्तरकाशी जैेसी शान्त व धार्मिक नगरी में जिन्दगी का अहम हिस्सा गुजारने वाले भाई साहब पर लोगों की देखा देखी देहरादून जाकर बसने की न जाने क्या सनक सवार हुई कि उन्होंने पहले तो जी.पी.एफ. से लोन लिया, फिर बैंक से, फिर भी पूरी बात न बनी तो दोस्तों, रिश्तेदारों से कर्ज मांगा यहां तक कि दुकानदारों से उधार तक किया………लेकिन येन केन प्रकारेण दून में एक प्लाट ले ही लिया तथा फिर कर्ज पर कर्ज चढ़ाकर किसी प्रकार मकान भी बना लिया। हालांकि दीगर बात यह है कि इस प्लाट प्रकरण से लेकर मकान बनाने तक की प्रक्रिया में उनकी जो हालत खराब होनी थी सो तो हुई ही, लेकिन इसके बाद के हालात तो बद से भी बदतर हो गए। उनकी निजी जिन्दगी की गाड़ी इस कदर ऊबड़खाबड़ मार्ग से होकर गुजरी कि वे तौबा कर उठे। मकान बनने के बाद वे इस जुगाड़ में लग गए कि किसी तरह उनका ट्रान्सफर देहरादून हो जाए। निदेशालय से लेकर सचिवालय और सचिवालय से लेकर मन्त्रालय तक के अनगिनत चक्कर लगा चुके भाई साहब डेढ़ दो लाख रुपये फंसाने के बावजूद आज तक ट्रान्सफर ऑर्डर न हासिल कर पाए हैं। ठीक यही हाल मेरे एक और मित्र का है। पति-पत्नी दोनों ही शिक्षक हैं। जिनकी जिन्दगी का अधिकांश हिस्सा चमोली जनपद में और वह भी एक ही स्थान में एक साथ नौकरी करते हुए बडे़ सुख चैन से गुजर रहा था, पर तभी जब अचानक देहरादूनी नशा परवान चढ़ा तो, कल तक मस्त गुजर रही उनकी जिन्दगी तमाम तनावों से घिर गई।
पहले तो उन्होंने प्लाट लेने के लिए देहरादून के अनेक चक्कर लगाए, फिर अनेक एजेण्टों के साथ कई मोलभाव किए, कहीं लोकेशन गड़बड़ तो कहीं रेट सीमा से अधिक, कहीं पास पड़ोस अनफिट, तो कहीं रास्ते का लफड़ा, खैर काफी हील हुज्जत के बाद एक दूरस्थ इलाके में प्लाट का सौदा तय हुआ। वे अभी-अभी इस झमेले से उबरे ही थे कि फिर मकान बनाने की सनक चढ़ गई। आनन-फानन में मकान बनाने का ठेका किसी अनजान ठेकेदार को दे डाला। मकान का काम देखने के लिए अपने आप चमोली से बार-बार देहरादून आना संभव नहीं हुआ, ठेकेदार ने अपना मुनाफा निकालने के लिए जितना दोयम दर्जे का माल लगाना था, खूब लगाया, कितना सीमेंट कितना रेत लगा वो ही जाने या कि ऊपर वाला। इस्टीमेट भी अनुमान से बहुत ज्यादा खिंच गया। खैर! जैसे तैसे मकान बना, तो फिर ट्रान्सफर की समस्या उठ खड़ी हुई। नेताओं, मंत्रियों तक की सिफारिश लगाई। क्या-क्या पापड़ नहीं बेले आखिरकार पत्नी का ट्रान्सफर हो ही गया।
हालांकि स्थानान्तरण केवल कहने भर को ही देहरादून में था। नियुक्ति स्थल चकराता त्यूणी के अति दुर्गम क्षेत्र में था। अब आलम यह है कि अवयस्क बच्चे देहरादून में बिना गार्जेन के उतने बड़े मकान में अकेले रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। पत्नी शटल काक की तरह शनिवार इतवार को देहरादून व दूरस्थ विद्यालय के बीच उछलती रहती है, आप जनाब चमोली में अकेले जोगियों जैसा जीवन काट रहे हैं। मुलाकात होने पर जब उनसे पूछो और सुनाइए भाई साहब जीवन कैसा कट रहा है, तो उनके चेहरे पर तैरती दुश्वारियां उनका दर्द अपने आप बयां करने लगती हैं। ऐसे ही मेरी जान पहचान के न जाने कितने सारे लोग हैं, जिनकी जिन्दगी का बस एक ही मकसद है। किसी भी तरह दून में एक प्लाट का मालिक बनना। पौड़ी से लेकर पिथौरागढ़ तक उत्तरकाशी से मुनस्यारी तक, जिसे भी देखो दून में बसने का सपना पाले हुए है। इसका एक कारण तो पहाड़ियों की प्रसिद्ध भेड़ चाल ही है तथा दूसरे दून में प्लाट या मकान होना अब स्टेट्स सिम्बल के रूप में भी माना जाने लगा है। जिसका दून में एक अदद मकान नहीं या जो कम से कम एक वहां प्लाट का मालिक नहीं, तो जान लीजिए कि उसके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं। यूं समझ लीजिए दून में मकान या प्लाट का होना समाज मे आपकी एक अलग हैसियत निर्धारित करता है।
इस मर्ज के मारे मेरे एक और परिचित हैं, जिन्होंने हाल ही में अपना अच्छा खासा बना बनाया बड़ा मकान बेचकर दून के किसी दुर्गम इलाके में छोटा सा प्लाट लिया है। जब मैंने उनसे पूछा, भाई साहब मकान का काम कब शुरू कर रहे हैं, तो वे बोले, अरे भाई, किसके मकान का काम, आज तक की जमापूंजी से जो मकान बनाया था, उसे बेचकर जितना पैसा मिला उतने में तो एक छोटा सा प्लाट ही ले पाया हूं। पहले रहने के लिए कम से कम अपना मकान तो था। अब तो किराए के मकान का खर्च अलग से और बढ़ गया है। न जाने मेरी अक्ल पर क्यों ताला पड़ा और मैं देहरादून के प्लाट के चक्कर में आ गया।
मैं तो हर किसी को यही सलाह दूंगा, भइया देहरादून के चक्कर में न पड़ना नहीं तो बाद में मेरी तरह पछताओगे। मैंने कहा, वाह भाई साहब, यह भी खूब रही, अपने आप तो दून में प्लाट ले लिया और अब देर सबेर मकान भी बनाएंगे ही। पर उपदेश कुशल बहुतेरे…………। वे खिसियाई हंसी के साथ बोले, किसके मकान का काम यार…….? वो प्लाट तो गड़बड़झाले में पड़ गया। सुनने में आया है कि जिसने रजिस्ट्री की थी उसके नाम तो वहां जमीन है ही नहीं। एक साल से ऊपर हो गया आज तक दाखिल खारिज नहीं हुआ। पहले रहने के लिए कम से कम अपना मकान तो था ना… ना.ना.ना..बिल्कुल ना….देहरादून में मकान कतई नहीं। प्लाट लेने की गलती कर बैठा सो कर बैठा। मकान तो अब पहाड़ में ही बनेगा। मैंने फिर कुरेदा, ऐसा भी देहरादून से क्या मोह भंग हो गया? वे बोले, यार जो बात अपने पहाड़ में है, वो भला देहारादून में कहां? आए दिन सुनने को मिलता रहता है कि देहरादून के फलाने इलाके में सड़क चलती महिला के गले से बदमाशों ने सरे आम चेन छीनी, किसी का पर्स लूट लिया, घर में रह रहे वृद्ध दम्पत्ति की गला रेतकर हत्या की, लाखों की नगदी व जेवरों की लूट, राहजनी, अपहरण, फिरौती, बलात्कार, अन्धाधुन्ध सड़क हादसे, भय, असुरक्षा और ऊपर से बढ़ता प्रदूषण………………ना भई ना एक बार नहीं सौ बार भी पूछोगे तो मैं ना ही कहूंगा।भाई साहब के मजबूत इरादों से मुझे भी ताकत मिली और मैंने भी मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि
देहरादून में प्लाट तौबा तौबा………।