डाॅ. उर्मिल कुमार थपलियाल
40-45 साल पहले की बात ठहरी। हुसैनगंज में हुआ करती थी तब एक कुमाऊं परिषद। ठेठ पहाड़ी ढाबे जैसी। तब लखनऊ आधा कुमाऊं और एक तिहाई गढ़वाल हुआ करता था। फागुन आते ही होली की बैठकें शुरु हो जाती थी। बाद में घरों में भी ये बैठकें बुलाई जाती थी। पीतांबर दत्त पांडे जैसे महारथियों के चेले-चांठे उनकी ही तरह गमका कर गाते थे।
https://regionalreporter.in/ukd-pratyashi-namankan-jaari/ बैठी होली भी, खड़ी होली भी। एक तरफ अबीर-गुलाल की प्लेट। दूसरी ट्रे में सौंफ, इलायची, रामदाना और नारियल की गरी। पीणी-पिलाणी ऐलानिया नहीं होती थी। जो सबसे अच्छे सुर में गा रहा हो, लोग समझ लेते थे कि घर से ही टुन्न होकर आया है। सफेद कुर्ता-पायजामा पहने माथे पर गुलाल का टीका लगाए लोग होली का कोरस गाते थे। बारी-बारी से हारमोनियम, बाजा पकड़ा जाता और टर लगती कि- ‘‘हो हो मोहन गिरधारी….।’’ बीच-बीच में ‘‘जल कैसे भरूं जमुना गहरी….।’’ इन बैठकों में दीदी-भुली नहीं आती थी। कभी कोई छोटी बच्ची आ गई तो आ गई। वो गाती-‘‘मलत मलत नैना लाल सुनो जी नंदलाल न मारो, न मारो नयन में गुल्लाल।’’ बड़ी शानदार गम्मत जमा करती थी। बड़े घरों के ज्यादा पढ़े-लिखे मगर बिगचे हुए नौजवान होली को ‘डर्टी फेस्टिवल’ कहते थे। तब मोटरसाइकिल ज्यादा नहीं थी। वे नौजवान तब रिक्शों के हुड चढ़ाकर अपनी-अपनी राधा, रुकमणियों के संग प्राइवेट रास रचाया करते थे। आज उनमें से कुछ दमा, गठिया या मधुमेह में लिप्त हैं। कुछ खर्च हो गए।
एक और थे, हजरत गंज के नरही मुहल्ले के पास की दूध की डेयरी के तिवाड़ी जी। पुलिसवाले वहां फ्री की भांग पीकर लड़कों को होली का ऊधम मचाने की इजाज़त दे देते थे। टब के टब रंगीन पानी के फव्वारे चलते थे। तड़ियाल हुरियार झांझ, ढोलक, मंजीरा लिए पता नहीं क्या-क्या जो गाते थे। रामलीला में शूर्पनखा का पार्ट खेलते एक थे बिष्ट बाबू। भांग, धतूरा और कंट्री लिकर के कारण नशे की त्रिवेणी लगते थे।
गढ़वाल की होली मैंने कभी नहीं देखी। हां! घुटकीमारों को खूब देखा है। लखनऊ में नैथाणी जी के यहां की होरी हमेशा याद आती है। अंदर 16 गुणा 16 की बैठक में बाजा गमक रहा है। पंत ज्यू, जोशी जी, घिल्डियाल बाबू, बोरा साब और शाहज्यू जैसे भीषण व्यक्तित्व शाम से ही तन मन रंग लेते। बाहर लौंडे-लपाड़ी लफंगेबाजी करते रहते। कुछ युवा प्रतिभाशाली थे। बीच-बीच में उठकर गुसलखाने जाते। जैसे वाकई पेशाब करने जा रहे हों। आते तो नाक-मुंह पोंछते आते। मुंह में दालमोठ भरी रहती। कपड़ों से भभके छूटते रहते। मेरे एक मित्र पीने में मिर्ज़ा गालिब के बाप ठहरे। बैठक में होली गाने बैठे तो पजामे के नाड़े में खोसी बोतल ‘‘कल्चकल्च’’ करने लगी। मैंने पूछा- क्या है यार, वो बोले- पेट में मरोड़ है। गाया नहीं जा रहा। मैंने कहा- जाओ, उधर निपट आओ। वे गुसलखाने जाकर निपट आए। उनकी बोतल की ‘‘कल्चकल्च’’ निकलकर पेट में समा गई थी। मगर लौटते वक्त पजामे में गेड़ पड़ गई। अब कौन खोले। उन्होंने जनेऊ की तरह नाड़ा तोड़ा और तहमत की तरह कमर में खोंस लिया। अब वे सुमधुर सुर में थे। हारमोनियम पकड़ा नहीं जा रहा था पर नशीली अंतड़ियां गा रही थीं कि- ‘‘रंग डारि दियो अलबेलिन में।’’
हाय, हाय, हाय। अब तो मसल है कि- ‘‘गुल गए गुलशन गए, जग में धतूरे रह गए।’’ आज लखनऊ की कुमाऊं परिषद को मरे कई बरस हो गए। वहां अब बाटा की दुकान है। नरही वाले तिवाड़ी जी की दूध की डेयरी में दांत का डाॅक्टर बस गया है। हमारी त भैजी होली तभी होली जब होती थी। आज की होली में क्या खारा डालना है। साला, होली के दिन भी ड्राई-डे। सूूखी होली भी कोई होली हुई। थू थू थू।