उर्मिल कुमार थपलियाल
परम मान्यवर। आप धन्य हैं। आपके पापों का फल भोगने के लिए ही हम इस देवभूमि में पैदा हुए हैं। इससे पूर्व यहां कभी दानव नहीं थे। आपने वह कमी पूरा करके ‘‘नर्कादपि गरीय सी’’ का अवसर दिया। आपकी क्या बात। जहां देखी तवा परात, वहीं बिता दी सारी रात। हमारा क्या, नवरात्रों में हमारा तो हमेशा खाडु लापता हो जाता है। सरकार के बाप का क्या जाता है। आप अपने अगले पाप शीघ्र करें ताकि कोई ‘‘एरियर’’ न रहे। ये पाप आप एडवांस में भी कर सकते हैं, क्योंकि चुनावों के समय तो आपको खीसें निपोरने से फुर्सत नहीं मिलेगी। मतदाताओं की चिंता मत करो मान्यवर, उनके भाग्य में सदा कांडे लगे हुए हैं। पिछले पाप आपने कितने परिश्रम से किए थे। दलालों, माफिया, सरदारों और ठेकेदारों से आपकी मैत्री भरत मिलाप जैसी थी। आपके आदेश पर ही हेमा मालिनी के चरण मैली गंगा ने छुए थे। करोड़ों का माल खाने में आपने अथक परिश्रम किया था। इस गर्मी में आपने अपने लिए दर्जनों ए.सी.लगा कर हमारे हाथ में हथपंखे पकड़ा दिए हैं। कहा भी है कि ‘‘ऐसो को उदार जग मांही।’’ अगल बगल गंगा जमुना होते हुए भी हम अगर प्यासे न रहे, तो पानी की कीमत कैसे जानेंगे। आपकी प्रजा को तो छूट है मान्यवर कि पानी नहीं तो दारू पियो। टिंचर अब लगाने की नहीं, पीने की चीज ठहरी। बड़े लोग भी पानी नहीं ‘‘मिनरल वाटर’’ पीते हैं। आपके आदेशानुसार हम लोगों को शिवाम्बु पीना चाहिए। अपना न सही दूसरों का सही। इसमें आयुर्वेदिक गुण है। अपना हाथ जगन्नाथ इसे ही कहते हैं।
सूखे गन्ने जैसी अपनी पहाड़ी जनता को निचोड़ना तो कोई आपसे सीखे। यदि आप राज्य में बुरांस से शराब बनाने का कारखाना खुलवा दें तो नवरात्रों में भगवती आपके ‘‘दैणी’’ हो जानी ठहरी। जब जब आप हमारी खोपरी पर निरंकार की तरह नाचते हो, तो हमारे मन की बदीण नाचने लगती है। आपके होते हुए ‘‘ठाकुरो’’ हम जैसे कुजात क्या खाके पाप करेंगे। पाप करने के लिए दुस्साहस चाहिए। बीड़ी जला देने वाला जिगर चाहिए। दो रुपए किलो चावल के नाम पर कंकड़ खाना ही हमारा धर्म है। चावल तो सुविधानुसार अधर्मी खाते हैं। तुम तो खाओ ‘सिरी’ और हमें थमा दो ‘‘श्रीफल’’। सही बात है हम जैसे मामूली आदमी पर पाप सुहाते ही नहीं। हर ऐरा, गैरा, नत्थू, खैरा, रावण नहीं बन सकता। द्रौपदी की साड़ी खींचने के लिए हाथों में सरकारी ताकत चाहिए। वासुदेव और देवकी यदि परिवार नियोजन अपनाते, तो न कृष्ण जनमते न कंस मरता। पर इतिहास क्या करे। मसल है कि ‘‘हुई है वही जो राम रचि राखा।’’ खैर ये भी अर्ज है कि- इस बार रामनवमी/काफी है सहमी सहमी/देखो नए नजारे/धांसू हैं सीन सारे/फिर चोर लम्पटों में/भांडो, नदी नटों में/कुछ गाढ़ी छन रही है/फिल्मों की इक हिरोइन/कपड़े पहन रही है/सारे उसूल क्या हैं/कागज के फूल जैसे/फूलों की घाटियों में/उगते बबूल जैसे/उफ अभी से ये गरमी/सत्ता बनी कुकुर्मी/ये भैंस फिर से देखो/कीचड़ में सन रही है/कुछ गाढ़ी छन रही है।