वह मुस्कुराता दबंग चेहरा that smiling domineering face

श्रीनगर गढवाल के ओम भाई

अलविदा तो कोई होता ही नहीं मोहब्बत की जिम्मेवारी में।

प्रभात उप्रेती

श्रीनगर गढवाल के ओम भाई नहीं रहे,ल यह खबर मुझे हालिया उनकी बहन कमला से मिली।
एक सैलाब यादों का मुझे बहा गया। https://regionalreporter.in/fire-in-restaurant-in-chamba-area-of-tehri/
उनका संयुक्त परिवार का हर सदस्य अपने पूरे जिस्म आंखों में हरदम मुस्कुराता था। समझ में आया था तब हर हालात को मुस्कुरा के अपना बनाने का सबब।
ओम भाई अग्रवाल परिवार के सबसे बड़े पुत्र थे। मेरी अध्यापिका बहन और उस परिवार की बेटी कमला एक ही जीजीआइसी में थी और मैं महाविद्यालय श्रीनगर में प्राध्यापक। आना जाना हुआ तो वह संबंध जो कायनात से कभी जन्म- जन्म के नाते ढंढ़ लाता है, आ लिये। उस परिवार के माता,पिता मेरे आत्मज माता- पिता भी बन गये।
मां बहुत मासूम,पिता जगदीष बहुत समझदार, दबंग। सहदय नारियलनुमा मुखिया के जायज,जरूरी अनुशासन का पाठ उनके प्लेटो वाले दार्शनिक अंदाज से सीखा।
मेरी बातों पर पूरा परिवार हँसता, वह भी हंसते थे, पर छिप कर। गम्भीरता,जिम्मेवारी की वह रैसेपी स्वाद से ज्यादा स्वस्थ की थी।
एक बार मैंने अपना दुःख लगाया कि मैं इतनी एक्सरसाइज,योग करता हूं पर फिर भी बीमार रहता हूं तो बोले, एक्सरसाइज न करते तो और भी गड़बड़ होता। जो नहीें है उसके लिए क्या करना जो है उसे उपायों से सम्भालो।
हर कहा, जिया नहीं होता, एक अधिकार,एक प्रेम ही उसे शाश्वत बनाता है। आज तक वह कहा, हर संकट में है तारन हार।
एक बार श्रीनगर में पौलेटैकनिक के कुछ उदंड छात्रों ने गुंडागर्दी गर्दी कर के आयाम खड़े कर शहर को आतंक में बदल दिया। पुलिस निष्क्रिय बनी रही,तब जगदीष अग्रवाल, उनके बड़े पुत्र ओम अग्रवाल जी ने बीड़ा उठाया। पिता जी ने डीवाइएसपी की वर्दी पकड़ कर कहा, आप से नहीं होता तो ये वर्दी मुझे दे दीजिए।
फिर उसके बाद पुलिस की मुहिम हर दिन खबर बनती कि आज उसे पकड़ा,आज सरगना चौधरी को चार किलोमीटर दौड़ा कर पकड़ा गया।
अपने घरों से लोग जीप में लदे लड़कों को थाने जाते देखते। हालांकि उसमें सीधे साधे युवा भी पिसे।
आतंक दो दिन में खत्म हो गया।

ओम भाई पारिवारिक होल सोल बिजनेस को सम्भाले थे।
एक किराने की गणेश बाजार में छोटी सी दुकान में वह बैठते। मैं जब वहाँ से गुजरता, तब वह मुझे अपने छोटी ,पर चमकती आंखों से अपनी तनी मूछों की ताव लिये कभी बुला लेते कहते, अरे प्रोफेसर साहब, जरा बैठिये कुछ देर!
उनकी जानकारी, ज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत था। वह हर स्थिति का ऐसा विश्लेषण करते थे कि सारे भेद खुल जाते।
वह शरीफ, दंबग, वीरत्व के प्रतीक थे, तनी मूंछें तो थी ही, उसका अंदाज भी तना था। हर गलत के खिलाफ वह आंखें अंगारे बरसातीं।
होते हैं ऐेसे लोग जो जीते हैं, जिलाते हैं, अपनी खुशियां दूसरों के लिए भी रिजर्व किए , अपनी खामोशी में साकार करते हर जगह । वह खास होते हैं पर इस खास की पब्लीसिटी नहीं होती।
इलाके के संरक्षक कहूं, तो सही कह पाऊंगा।
ओम भाई! तुम ऐसे ही थे। ओम की आवाज की तरह गूंजते हुए अंतरतल में कहीं बहुत गहरे, वाईवरेट करते। जीते, और जाने के बाद भी जिम्मेदारी की यह परम्परा, प्यार की साया की तरह गहरी धूप लिए जाने के बाद फिर फिर लौट कर आती है।

अब वस्लेयार को क्या कहें, अलविदा!
अलविदा तो कोई होता ही नहीं मोहब्बत की जिम्मेवारी में।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: