गैंदवा पे मारी लात गैंदवा यमुना गिरी है।
अब आयेंगे आगले फागुन को।
एकादशी काटो चीर द्वादश होली रची है।
आशुतोष
ये गीत पूरे न तब याद थे न आज हैं, लेकिन इन गीतों के गाते-गाते गांव-गांव जाने के वो दिन आज भी दिमाग में आते ही सब आज का जैसा ही लगता है। आज से दो दशक पहले जब मैं स्कूल में पढ़ता था, मार्च का महीना एक अलग ही चमक लेकर आता था। पहले तो फूल-फूल खाजा का त्योहार और फिर होली की अलग ही मौज। अभी भी जो याद बाकी हैं उसमें होली के वक्त अक्सर पेपर होते थे। लास्ट के जब एक दो पेपर बाकी रहते थे,
तब तक होली के दिन नजदीक आ जाते। पंचांग वाले कैलेंडर में स्केच से चीर काटने वाली तारीख को गोला कर के रख देते और पढ़ते वक्त भी होली की तैयारियों का ही सोचते रहते थे। चीर काटने वाले दिन की शाम सभी बाल होल्यार मेलू के पेड़ के तरफ निकल पड़ते एक के हाथ मे कटोरी पर रंग और बाकी दो ढोलक हुआ कारते थे हम लोगों के पास और बाकियों को जो मिला बजाने को थाली, कंटर, गेलन बजाते-बजाते तीन चोट में चीर काट कर पंचायती चौक में रख देते थे।
अगली सुबह पेपर देने जाना और वापस आते ही कपड़े बदल कर बिना खाना खाए ढोलकी, झंडा, चिमटा और रंग की कटोरी पकड़ते ही अगल-बगल के गावों मे निकल जाते थे। हर घर में जाना ये आधे-अधूरे गीत गाना एक कटोरी चावल या एक दो रूपए मिलना और जितने बार मिलना उतने बार उनको गिनना कोई-कोई तो गीत सुने बिना अपने चौक से जाने ही नहीं देते थे। शाम होते ही घर जाने से पहले अगले दिन किस गांव जाना और कितने बजे जाना ये तय हो जाता था साथ ही कमाए हुए पैसों को गिनना और किसको कितना मिलेगा उसका हिसाब लगाना ये हर दिन चलता था।
ऐसे ही मस्ती में वो तीन दिन गुजर जाते और होलिका दहन की रात सभी बाल होल्यार पंचायती चौक से चीर को ले जाते और गांव के खाली खेतों मे जला कर अपने अपने घरों को निकल जाते। अगली सुबह उठते ही सब एक जगह इकठ्ठा होकर पैसों का बटवारा करते जो तीन दिन में कुल 200-300 रुपए हो पाते थे। रू. 30-40 प्रत्येक को मिलते और फिर अपनी कमाई लेकर पानी और रंगों की होली खेली जाती। लेकिन हमारी होली यहीं खत्म नहीं होती अगले दिन जो चावल जमा किया होता उसका एक जगह में बात और दाल या कड़ी बनती और उसी के साथ अगले साल के फागुन का इंतजार शुरू हो जाता।