भग्वद्गीता और युवा पीढ़ी

उमा घिल्डियाल

मंगसीर महीने की मोक्षदा एकादशी का बहुत अधिक महत्त्व है। यह एकादशी है, इसलिये तो महत्त्व है ही, परन्तु सबसे अधिक महत्त्व इसलिये है कि इसी दिन सनातन धर्म के प्राणस्वरूप ग्रन्थ गीता का उद्भव हुआ था।

बड़ा ही विशेष दृश्य है। इन्द्रप्रस्थ पर किसका अधिकार है? इसका निर्णय करने के लिये धर्मक्षेत्र अर्थात कुरुक्षेत्र में कौरवों और पाण्डवों की सेनायें आमने-सामने खड़ी हैं।

अर्जुन जिस पर जीत का दारोमदार है, एकाएक कृष्ण से अपना रथ दोनों सेनाओं के मध्य में ले जाने के लिये कहते हैं। कृष्ण रथ को सेनाओं के मध्य में खड़ा कर देते है।

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अर्जुन अपने प्रतिपक्षियों को जब देखते हैं तो विषाद से भर उठते हैं। वे अपना गाण्डीव रथ में रख देते हैं और कहते हैं कि हे कृष्ण! मेरे प्रतिपक्षी तो सब मेरे हैं। भला पितामह भीष्म, गुरू द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अश्वथामा, दुर्योधन आदि से मैं कैसे युद्ध कर सकता हूँ

मेरा हृदय काँप रहा है। गाण्डीव मेरे हाथों में काँप रहा है। मैः अशक्त हो रहा हूँ, भगवन् ! मेरे लिये यह सब बहुत कठिन है, मैं राज्य लेकर क्या करूँगा।”

अर्जुन रथ में बैठ गये हैं । दोनों सेनायें उन्हें देख रही हैं। बड़ी विकट स्थिति है। गीता का यह प्रथम अध्याय विषाद योग के नाम से जाना जाता है। इस विषाद को दूर करने के लिये ही प्रकट होती है –श्रीमद्भगवद्गीता।

स्वयं भगवान के मुख से ज्ञान, कर्म और भक्ति की ऐसी त्रिवेणी बहती है कि अर्जुन का समस्त विषाद दूर हो जाता है और उनका वह तेजस्वी स्वरूप प्रकट होता है जिसको युद्ध का परिणाम अमर कर देता है।

द्वितीय अध्याय से श्रीकृष्ण की वाणी का प्राकट्य प्रारम्भ होता है

” कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थिम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।”

अर्थात-हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है।

यह प्रथम श्लोक ही अर्जुन के समस्त प्रश्नों का समाधान करना प्रारम्भ कर देता है। सबसे पहले जो शब्द है -वह है, असमय।कोई भी कार्य, प्रश्न, समाधान उपयुक्त समय पर किया जाता है।

इस समय दोनों सेनायें एक दूसरे के सम्मुख युद्ध के लिये सम्मुख खड़ी हैं। जो कुछ प्रयत्न युद्ध रोकने के लिये किये जाने थे, वे सब किये जा चुके थे। ऐसे समय में अर्जुन का यह प्रश्न करना नितान्त व्यर्थ था, क्योंकि निर्णय लिया जा चुका था। अब तो कर्म करना ही शेष था।

दूसरा शब्द है -मोह अर्थात, आसन्न कर्म के सम्मुख पार्थ का यह मोह व्यर्थ था। यह आसक्ति उचित नहीं थी।

तीसरा शब्द- किस हेतु अर्थात किसलिये! प्रत्येक कार्य का कुछ न कुछ उद्देश्य होता है जो कि कल्याणकारी होना चाहिये, किन्तु अर्जुन इस समय जो कुछ कर रहा था उससे किसी भी पवित्र उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो रही थी।

कृष्ण और स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि अर्जुन का यह आचरण महापुरुषों के आचरण के अनुकूल नहीं है। महापुरुष सदैव समय के उपयुक्त कार्य करते हैं तथा समय पर उपस्थित आवश्यक कार्य को पूर्ण करते हैं।

स्वर्ग का अर्थ है सम्मान। कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन न तो तुम्हारा यह व्यवहार न तो तुम्हें सम्मान दिलायेगा और न कीर्ति (अमरता)।

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अर्जुन नहीं समझते और अनेकानेक प्रश्नों के द्वारा अपने व्यवहार को सही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। सातसौ श्लोकों का यह काव्य जीवन के सभी प्रश्नों का उत्तर देता है, कार्य करने को प्रेरित कर जीवन में विजयी बनाता है।

वर्तमान में हमारे जीवन में कई बार ऐसे ही विषाद, मोह, हताशा, निराशा,व्यामोह,असमन्जस और किंकर्विमूढ़ता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

ऐसी स्थिति में हम निर्णय नहीं कर पाते कि क्या करें और क्या न करें। ऐसे में समय की उपयुक्तता पर विचार करना सबसे अधिक समीचीन होता है।

आज हमारी युवा पीढ़ी सबसे अधिक निराश, हताश और लक्ष्यभ्रष् हो रही है। इसके परिणाम उनके सामने कभी-कभी बहुत भयंकर हो रहे हैं।

हताशा और निराशा की स्थिति में व्यसनों के भटकाव भरे रास्ते तो हैं ही, झूठे आश्वासन, कुछ समय के लिये दिखाये गये सब्जबाग उन्हें अपराध की गलियों में भटकने के लिये भी मजबूर कर देते हैं।

माता-पिता के स्वप्नों और स्वयं के स्वप्नों का भार जब उनकी क्षमता नहीं उठा पाती है तो वे जीवनमुक्ति की डरावनी और आँसू भरी डगर पर आगे बढ़ जाते हैं।

अपने जीवन को स्वयं समाप्त कर बैठते हैं। पीछे रह जाती हैं उनकी यादें और आँसू। ऐसी निराशा और हताधा की स्थिति को सँभालती है- गीता।

वह प्रत्येक निराश मानव से पूछती है- इस असमय में यह मोह, यह निराशा क्यों? बताओ, और कहने पर मार्ग सुझाती है-भागो मत, रूको और परिणाम की चिन्ता छोड़ केवल कर्म करो, विशुद्ध कर्म।

मानव हो तो, मानव ही रहो। भविष्य का निर्धारण तो समय करेगा। बस तुम अपने सामने खड़े कर्म को देखो और जुट जाओ।

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