गजेंद्र रौतेला
बात बीसवीं सदी के अंतिम दशक की होगी, जब मैं युवावस्था में था और गोपेश्वर डिग्री कॉलेज में पढ़ता था। चमोली जिला मुख्यालय गोपेश्वर होने के कारण कई आंदोलनों के धरना-प्रदर्शन गोपेश्वर में हुआ करते थे। तब आन्दोलनों और पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर एक नाम सुनने और पढ़ने को मिलता था। कई बार कुछ टिप्पणियां और वक्तव्य भी धन सिंह राणा के नाम से सुनने-पढ़ने को मिलते थे। क्या शानदार और व्यावहारिक और अनुभवजनित टिप्पणियां होती थी इनकी। इसके साथ-साथ हमारे गुरुजी प्रो0 प्रभात कुमार उप्रेती भी कई बार इस नाम का संदर्भ दिया करते थे, तो स्वाभाविक रूप से इस नाम के प्रति एक आकर्षण सा हो गया, लेकिन उस दौर में तपोवन के आस-पास 1992-93 में अनायास एक छोटी सी मुलाकात के अलावा कभी कोई सीधा संपर्क नहीं हुआ। इसी तरह, लगभग एक दशक बाद वर्ष 2002-03 में देहरादून में रेंजर्स ग्राउंड में अचानक से किसी कार्यक्रम में मुलाकात हो गई। मैंने अपना फिर से परिचय दिया, तो उन्हें कुछ भी याद नहीं था, लेकिन फिर भी हक़ से बोले कि “यार यहाँ तो पता नहीं कब तक होगा खाना थोड़ा भूख सी लग रही है, खाना खाने के लिए चलते हैं।“ हालांकि मैंने वहीं पर खाने का इन्तज़ाम किया और हम दोनों ने खाना खाया और थोड़ा बहुत इधर-उधर की बातचीत के बाद हम विदा हुए।
अगले एक-दो दिन में उन्हें वापस लाता जाना था। फिर उसके बाद ज़िन्दगी की जद्दोजहद में उनसे न कभी बात हुई और न ही मुलाक़ात। हालांकि 2013 में केदारनाथ आपदा के दौरान हमारे साथ राहत और बचाव कार्य में ज़िप लाइन रोपवे लगाने में सहयोग करने आये उनके बड़े बेटे नरेन्द्र के मार्फ़त उनकी कुशलक्षेम की जानकारी मिलती रही। जब कोविड काल में ‘‘स्टूडियो यूके 13’’ के बैनर तले लेखक निर्देशक संतोष सिंह ने भोटिया भाषा में ‘पताल ती’ फ़िल्म बनाने के प्रस्ताव रखा, तो उसकी रिसर्च के सिलसिले में धन सिंह राणा जी से फिर सम्पर्क किया गया और रिसर्च के साथ-साथ फ़िल्म में दादा की महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए सहर्ष तैयार भी हुए और पूरी लगन के साथ उसकी तैयारी भी की। इस उम्र में भी उनकी अपने काम के प्रति प्रतिबद्धता उनके जीवंत अभिनय में साफ दिखाई देती है। उनके मार्गदर्शन और लोकजीवन के शानदार अनुभवों के कारण ही ‘पताल ती’ जैसी लीक से हटकर बनी फिल्म होने के बावजूद अपने सशक्त कथानक के बदौलत कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी विशेष छाप छोड़ने में कामयाब रही। जिसके लिए अभी हाल में ही 17 अक्टूबर को राष्ट्रपति द्वारा भी नॉन फीचर फिल्म श्रेणी में बिट्टू रावत को बेस्ट सिनेमेटोग्राफी का राष्ट्रीय पुरस्कार देकर सम्मानित भी किया गया।
धन सिंह राणा एक जनवादी संघर्षशील योद्धा थे। उनका यूं अचानक से चले जाना पूरे समाज के लिए एक अपूरणीय क्षति है।।चिपको आन्दोलन से लेकर 1998 के झपटो-छीनो आन्दोलन तक उन तमाम हक़-हकूकों के जमीनी संघर्ष के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा, जिसकी बदौलत जनहित के बहुत से फैसले तत्कालीन सरकारों को लेने पड़े। इस सब के दौरान उन्होंने कई बार यह भी साबित किया कि लोकतंत्र में एक ग्राम प्रधान की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जिसके लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।
बकौल धन सिंह राणा, “ जब तक लड़ने की जरूरत होगी, लड़ना तो पड़ेगा ही..और ‘जीत’ बहुत ‘छोटा’ और ‘भौंडा’ शब्द है ,क्योंकि हम किसी को जीतना नहीं चाहते। अगर धौली और ऋषि गंगा की तरह अविरल बहने के लिए संघर्ष जरूरी है, तो यह उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है। हम गाँव के रहने वाले लोग हैं, हमारी चिंताएं ‘मैं’ या ‘मेरा’ के इर्द-गिर्द नहीं ‘हम’ और ‘हमारे’ की व्यापकताओं में निहित हैं। चिपको के समय से ही हम विश्व स्तर पर स्थापित हो चुके हैं कि हमारा और हमारी प्रकृति का भविष्य अलग-अलग नहीं है। यह छद्म बौद्धिकता के सेमिनारों से उत्पन्न चेतना नहीं, बल्कि युगों-युगों से ग्रामीण जीवनशैली का मूल मंत्र रहा है।“ उनका यह कथन आज और भी ज्यादा प्रासंगिक और सार्थक है।
संघर्षों की विरासत धन सिंह राणा जी को विनम्र श्रद्धांजलि।