बल्लभ डोभाल
हिन्दी कहानी के सशक्त हस्ताक्षर बल्लभ डोभाल का जन्म 30 मार्च, 1930 को हुआ। अंधेरी रात का सफर उनकी चर्चित कहानियों में शामिल है जिसमें एक गड़रिये के साथ बिताई गई रात का वर्णन एक गड़रिये के साथ वार्तालाप की जरिये उन्होंने किया है।
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आज वह सभी कुछ पुराना पड़ गया है। जंगलों से ढका वह समूचा भू-भाग छोटी-बड़ी चट्टानों से लेकर आसपास पसरी पहाड़ियों का वातावरण… गहरे सन्नाटे में डूब गया लगता है। शाम होते ही अपनी भेड़-बकरियों के साथ वह जिस गुफा में घुस जाता था और जीवन के साठ वर्ष जहां बेखबर गुजार दिया… वह गुफा भी मुंह खोले अवाक् हुई लगती है। कभी इसी चट्टान से हवा में गोलाकार वृत्त बनाते हुये उसने कहा था कि- इतनी सारी धरती का मैं मालिक हूं।
‘मालिक नहीं, तू यहां का बादशा है निहालेराम!’ मैंने कहा था, धरती से जो जुड़ पाता है और जो उसका सही उपयोग करना जानता है… धरती उसी की हो जाती है।
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निहालेराम के अलावा किस में हिम्मत है कि ऐसी बीहड़ चट्टानों के बीच एक रात भी टिक जाए। इन्हीं दुर्गम घाटियों से होकर जब उसकी भेड़-बकरियां गुजरती हैं तो उसे भी पता नहीं चलता कि कहां जा पहुंची हैं। तब निहालाराम एक हांक में उन्हें समेट लेता। भेड़-बकरियां उसकी आवाज के संकेतों को समझती थीं। उसका यह कहना भी गलत नहीं था कि जानवरों की समझ आदमी से किसी तरह कम नहीं है। देर से नहीं, जानवर भी आदमी को समझने में चूक नहीं करते।
निहालाराम व उसकी भेड़-बकरियों ने अपना साम्राज्य जैसे स्थापित कर लिया हो। सर्दी-बर्फ के दिनों में वह अपने इस परिवार के साथ आबादियों की ओर उतर जाता और गर्मी-बरसात के शुरू होने पर सदल-बल यहां वापस लौट आता।
तब उसकी पहली मुलाकात ने मन में भारी उत्सुकता पैदा कर दी। वह कहां का रहने वाला है… उसका घर-परिवार… पूछने पर बोला कि आदमी का अपना शरीर ही उसका अपना घर है… ओर परिवार?… तो इतना बड़ा परिवार साथ लिये घूमता रहता हूं। छः सौ प्राणी हैं, रात-दिन इनकी देखभाल रखनी पड़ती है।
उस दिन लगा कि वह भेड़ चुगाने वाला मात्र गडरिया नहीं है, बल्कि एक लम्बी उम्र जीते हुये आदमी के सही-सच्चे अनुभवों का जीता-जागता उदाहरण बन चुका है। वह टका-सा जवाब देना जानता है। किसी तरह का संकोच और लिहाज भी उसकी बातों में नहीं था। निहालाराम मेरे लिये एक रहस्य बन गया। मैं भी जान गया कि जीवन-यात्रा का आरम्भ भले कहीं से हो, मुकाम सबका एक है। निहालाराम उस मुकाम के आसपास पहुंच चुका है। जहां भेड़- बकरियों में उसे अपना परिवार और शरीर में घर दिखने लगा है।
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गर्मी के मौसम में यहां आते ही उससे मिलने की इच्छा तीव्र हो उठती। उससे मिलने के लिये सीधी चढ़ाइयां, चट्टानों और जंगल का रास्ता तय करना पड़ता था। वह ऊबड़-खाबड़ दुनिया, उसकी बकरियां और चट्टान पर बनी वह प्राकृतिक गुफा मुझे कुतूहल से भर देती। मैं इतना अभिभूत हो जाता कि एक बार मैंने वहीं, उसके साथ रहने का मन बना लिया। निहालाराम से मैंने कहा कि दो-चार दिन तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं। जैसे तुम रहते हो, बिल्कुल वैसे ही… दिनभर तुम्हारे साथ जंगल-जंगल घूमकर देखूंगा। कहीं चट्टान की आड़ में बैठकर चिलम खींचने का भी अपना मजा है। तुम्हारी भेड़-बकरियों के साथ… उनकी देखभाल मैं भी कर सकता हूं।
सुना तो उसे हंसी छूट आई। बोला, ’तुम मेरे साथ?… पर मेरी तरह कैसे रह सकते हो जंगल में! सोच लो।’
शहर के उस वातावरण में रह सकता हूं जहां आदमी के जानवर होते देर नहीं लगती। निहालाराम का कहना है कि जानवर बिना छेड़छाड़ किये हमला नहीं करते। शायद इसीलिये वह इन घोर जंगलों में निद्र्वन्द्व पड़ा रहता है। किसी तरह का डर यहां नहीं है, सोचकर मैंने उसके साथ रहने की ’हां’ भर दी।
उसने फिर पूछा, ’डरोगे तो नहीं?’
’तुम साथ हो तो डरने की क्या बात है।’ मैंने कहा।
देख लो! मेरे साथ रहोगे तो काम भी करना पड़ेगा।’
’कौन-सा काम?’
’जलाने के लिए पेड़ो से सूखी लकड़ियां उतारनी होंगी।’ ’हां, लकड़ियां उतार लाऊंगा।’
’पेड़ पर चढ़ना आता है?’
’आता है।’
’पर मान लो… तुम पेड़ पर चढ़ गये और झाड़ी में बाघ ने किसी बकरी को पकड़ लिया तब?’…
मैं चुप रह गया। फिर सोचकर कहा, ’तब तो हल्ला ही किया जा सकता है।’
’हल्ले से डरने वाला वह जानवर नहीं है।’
’तब क्या करना होगा?’ मैंने पूछा।
’करोगे क्या… मौके पर लड़ना भी पड़ता है। डर गये तो वह एक ही झपाटे में दो-चार को वैसे ही साफ कर देगा। कई तरह के जानवर यहां चट्टानों और झाड़ियों के बीच दुबके पड़े रहते हैं। बाघ हैं… भालू हैं, ये ही ज्यादा नुकसान करते हैं। घुटने के नीचे पिंडली पर एक गहरा निशान दिखाते हुये वह बोला, ’कुछ वर्ष पहले भालू ने मेरी टांग पकड़ ली। तब वह बकरी के एक बच्चे को उठा ले गया था। इन्हीं पत्थरों के बीच बच्चे की तलाश में निकला कि अचानक भालू ने मेरी टांग पकड़ ली। तब मैं भी किसी को कुछ समझता न था। क्यों बेकार में पंगा लेते हो, आखिर तुमको भी इसी जंगल में रहना है। छोड़ दो मेरी टांग।… लेकिन उसने पंजा गाड़ ही दिया तो मुझे भी गुस्सा आ गया। मैंने अपनी दूसरी टांग उसके कांधे पर चढ़ा दी और वहीं दबोचे रखा। फिर ऐसा झटका दिया कि नीचे खाई तक लुढ़कता ही चला गया। मेरी टांग जख्मी हो गई। महीना भर जड़ी-बूटियां घिसकर बांधता रहा। अब यह निशान रह गया है।…
और उस भालू का क्या हुआ… मर गया होगा वह?… मैंने पूछा।
’वह मरा तो नहीं, लंगड़ा जरूर हो गया था। किसी पत्थर से टकरा कर उसकी एक टांग टूट गई। आज भी वह जंगल मे ंघूमता दिख जाता है। वह मुझे पहचानता है और देखकर दूर से ही भाग लेता है।
उस दिन निहालेराम ने जानवरों की बहुत-सी बातें बता दी। उनके साथ पिछले चालीस वर्षों की दोस्ती का हवाला देते हुये बोला कि अब कोई जानवर मुझे न आंख दिखाता है, न भेड़-बकरियों के साथ किसी तरह की छेड़खानी करता है। अब तो जंगली बकरे, कस्तूरे, सुअर, ओर लोमड़ के बच्चे, मेरी बकरियों के झुंड में घुस आते है, दिनभर कूद-फांद करते हैं और शाम के वक्त छिटककर अलग जा रहते हैं।… मेरे साथ रहोगे तो वह सब तुम्हें भी दिखा दूंगा।
उसकी बातें सुनकर मैं हैरान रह गया। धरती, पेड़-पौधे, आदमी और जानवर के बीच उसने कैसा सामंजस्य स्थापित कर लिया है। जिन बातों को कल्पना की जाती है वे निहालाराम के अनुभव में साकार हो आयी थीं। वहां रहने की बात तय हो जाने पर मैंने कुछ खर्चे-पैसे का हिसाब पूछा तो वह बोला, ’तुम रहना चाहो तो रहने की बात करो। पैसा मेरे पास भी है। कहते हुये उसने बकरी की खाल के बने एक थैले का मुख खोल दिया, जो नोट और रेजगारी में फटा जा रहा था। यह रहा पैसा, लेकिन यहां पैसे का क्या काम!… कभी कोई मिल जाता है शहर जाने वाला तो महीने-पंद्रह दिन का जरूरी सामान उससे मंगा लेता हूं। खाने-पीने की यहां कमी नहीं, बकरी के दूध से भी काम चल जाता है।’
’पर इतना पैसा जंगल में कहां से आ गया तुम्हारे पास?’
’पैसा तो सब जगह है। साल में दो बार भेड़ों की ऊन निकलता हूं। सत्तर-अस्सी हजार की ऊन ले जाते हैं व्यापारी लोग यहीं से- फिर गर्मियों में हम लोग मैदानों की ओर जाते हैं तो वहां भी माल बिक जाता है। एक रात किसी के खेत में बकरियों के साथ ठहर गये तो खाना भी मिल जाएगा और सुबह चलते हुए सौ-दो सौ रूपया भी वह दे देगा। एक रात में इतनी खाद उसके खेत को मिल जाएगी कि अगले दो वर्षों तक खाद देने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इस जानवर के साथ पैसा ही पैसा है, पर भाग-दौड़ भी कम नहीं। इसकी मर्जी से हमें भी चलना है। शाम को जहां ये बैठ गए, हमें भी डेरा डाल देना पड़ता है।’
उस दिन निहालाराम की बातें एक नई दुनिया की बातें लग रही थीं। मन करता था, बैठकर उसकी बातें सुनता रहूं। लेकिन वहां ठहरने के लिए कुछ तो अपने पास चाहिए था। बदलने के लिए कपडे़ और कुछ दूसरा सामान लेकर अगले दिन आने की बात जब हुई तो वह बोला, ’मेरी तरह रहना है तो किसी सामान की जरूरत नहीं है। ये मेरे कपड़े देखा। दो महीने हो गए। बदलने की जरूरत भी क्या है। मिट्टी गोबर में कब तक बदलते रहेंगे। यहां ठंड हमेशा रहती है। ऊन की एक पतली चादर दिन में ओढ़ रखना… रात के लिए मोटे कम्बल पड़े हैं और क्या चाहिए।…
वह ठीक कहता है, उसी की तरह रहना है तो।… कमीज-पजामा और एक हल्की स्वैटर मैं पहने हुए था। उस पर एक ऊनी चादर निकालकर उसने मेरे कंधे पर डाल दी।
उस दिन बकरियां चुगाने के बाद वह गुफा में लौटा था। शाम होते ही गुफा के आगे छोटे-बड़े पत्थरों की आड़ लेकर बकरियां एक-दूसरे से सट गई। जिस गुफा में वह इतने वर्षों से रह रहा था वह किसी अजगर के खुले हुए मुख की याद दिलाने लगी। इतनी जगह वहां, आसानी से बन गई कि चार आदमी पसर कर सो सकते थे।
बरसात का मौसम अभी शुरू हुआ था। इस मौसम में कई तरह के बीज-वनस्पतियां ऊंचाइयों पर उग आती हैं। गुफा के अगले हिस्से पर निहालाराम ने दो भारी भरकम लकड़ियों का मुख आपस में जोड़ दिया और आग जला दी। बोला, इन्हीं लकड़ियों के ऊपर में खाना बना लेता हूं, ये लकड़ियां रात भर जलती हैं। आग की चमक और धुंए की गंध जहां तक पहुंचती है, वहां जंगली जानवर नहीं आते। आग से सभी डरते हैं।
अंधेरा होने के पहले उसी आंच में निहालाराम ने रोटियां सेक लीं। मक्की के आटे की पीली ओर करारी सिकी हुई रोटियां देखकर भूख करवटें लेने लगी। अपने साथ कुछ हरी पत्तियां वह जंगल से ले आया था। उन्हें कम्बल की लपेट से बाहर निकालता बोला, ’आज तुमको मालूम हो जाएगा कि जंगल में कैसा खाना मिलता है।’
तभी देखा, टीन के डिब्बे में पानी नहीं है। बोला, ’अब तुम सामने वाले पत्थर के ऊपर चढ़ जाओं। वहां पानी है, डिब्बे को भर लाना है।’
मैं पत्थर के ऊपर जा पहुंचा। देखा, पोखर की तरह पत्थर के बीचों-बीच पानी भरा पड़ा है। समझते देर न लगी कि बरसात का सारा पानी उस सपाट पत्थर के बीच गहराई के कारण जमा हो गया है, एकदम सफेद… कांच की तरह साफ-सुथरा।…
निहालाराम पानी कहां से देगा। मैं सोचने लगा, किन्तु जब निहालाराम कहता है तो मैंने मान लिया और आगे कोई पूछताछ नहीं की।
पानी मिलते ही उसने हरी पत्तियों को तोड़-मरोड़कर पतीली के अन्दर आंच पर रख दिया। पत्तियां जब उबल गई्र तो थोड़ा नमक मिलाते हुए बोला, ’आज तुम्हारी किस्मत से वह जंगली साग मिला है। मैं तो बकरी के दूध में नमक डाकर उसी के साथ रोटी खा जाता हूं। भूख में सब कुछ अच्छा लगता है। शहद भी मेरे पास पड़ा है… छोटी मक्खियों का बनाया हुआ।… कल देखना, जंगल में पेड़ों पर लटकते हुए छत्ते।… कल वापस लौटते इसी पेड़ से दो छत्ते मैं निकाल लाया। वरना भालू कहां छोड़ने वाला है।’
सूरज डूब चुका। लेकिन शेष उजाले में अभी सारा कुछ साफ-साफ नजर आ रहा था। अचानक मेरी नजरें उस बड़े पत्थर की जड़ तक जा पहुंची… जिस पर डेरा डाले हम बैठे थे। देखा कि पत्थर की जड़ में घास के पौधे जोर से हिलने लगे हैं। बिना हवा-पानी के हिलती उस घास की ओर मैंने निहालाराम का ध्यान आकर्षित किया। वह बोला,’कुछ नहीं है, घास यों ही हिलती रहती है। जंगली चूहे इस वक्त कूद-फांद करते हैं।
एक बार तो उसकी बात पर विश्वास कर लिया। बिना पूंछ बादामी रंग के चूहे इस वक्त कूद-फांद करते हैं। बिना पूंछ बादामी रंग के चूहे वहां सब जगह दिखाई दे रहे थे। जिनके द्वारा वहां की सारी जमीन को खोखला बना दिया गया था। शायद भीतर इन चूहों ने पगडंडियां और पुल तैयार कर लिए थे। जमीन में पांव जमीन के अन्दर धंस जाता। किन्तु घास में इस वक्त चूहे नहीं थे। कुछ तो जरूर है, मेरी नजरें वहीं देखती रहीं। तभी घास के अन्दर के हरे रंग के दो सांप बाहर निकल आए। चिल्लाकर मैंने निहालाराम से कहा- ’वह देखो!… तुम कहते थे कुछ नहीं है, यहां तो सांप निकल आए हैं।… एक नहीं दो… दो।…
निहालाराम ने भी उन्हें देख लिया। हमारी ताक-झांक के कारण दोनों सांप फुर्ती से लौटकर उसी घास में दुबक गए। मन ही मन मैं डर गया। किन्तु निहालाराम देखकर भी अनदेखा कर गया, जैसे कि वहां कुछ था ही नहीं। यह कहकर चुप्प रह गया कि- घास के कीड़े हैं, हरी घास में रहना पसन्द करते हैं।
घास के कीड़े तो है, पर हैं तो सांप।… पत्थर के ऊपर हम बैठे हैं, नीचे चारों तरफ घास उगी है। तब तो जाने कितने ही कीड़े यहां होंगे। अब रात को इसी पत्थर पर सोना है, सोचकर जान आधी रह गयी।
थोड़ी देर में निहालाराम ने सांपों की कहानी छेड़ दी। कैसे कैसे नाग फणिहर इन पहाड़ों पर रहते हैं। इतने तेज कि पलक मारते नहीं चलता, कहां पहुंच गए। यह सारी नागदेवता की धरती है। इसलिए घूमते रहते हैं। रात को कई बार मेंरे बिस्तर पर भी चढ़ आते हैं।
उसने एक स्लेटनुमा पत्थर पर आग की चिनगारियां निकाल ली और सूखे धूप की एक पांव ऊपर रख चारों दिशाओं में उसे घुमाया। निहालाराम मंत्र पढ़ता जा रहा था,’रच्छा करना माराज… तू सबका स्वामी… सिरताज… मददगार… सबको देखना, सबकी सुनना… भेड़-बकरी… गाय बच्छी… घर-जंगल सबकी खबर रख! मेरे दाता.. तू मालक, तू स्वामी।… ’जाने क्या-क्या कह गया निहालाराम।
मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। आदमी जिसके नाम से चैंक जाता हो और जिसे देखते ही रूह कांप उठे, वह कैसी रक्षा करेगा। अंधेरा कुछ और गहरा गया तो उसने तेल वाली देवदार की लकड़ी का एक छिलका जलाकर वहीं दो पत्थरों के बीच खोंच दिया। छिलका खूब तेजी से जलने लगा। इतनी रोशनी उससे मिलने लगी कि गुफा के आस-पास सभी कुछ साफ-साफ नजर आने लगा था। उसी रोशनी में रोटी खा चुकने के बाद उसने अपना बिस्तर फैला दिया। बीच में लकड़ियां जल रही थी, दूसरी ओर सूखी घास पर मेरे लिए एक मोटा कम्बल बिछ गया। बोला, ’आग के नजदीक रहने से ठंड तो नहीं लगेगी, तो भी कम्बल ओढ़ रखना। सुबह के वक्त सर्दी बढ़ जाती है। दो पहाड़ी मोटे कम्बल एक साथ ओड़कर उसने मेरे पास रख दिए। सोने की व्यवस्था हो गई तो बोला, ’अब तुम्हारे लिए हुक्का बनाता हूं, जब तक नींद न आए, पीते रहना।’
बाहर अंधेरा घना फैल चुका था। तेल वाली लकड़ी के समाप्त होने पर गुफा में भी अंधकार छा गया। मोटी लकड़ियों की बीच भड़क कर अनायास कोई लपट उठ जाती, जिसकी रोशनी में दूसरी तरफ चुपचाप बैठे निहालाराम की नंगी टांगे भर दिखाई पड़ती। सांय-सांय करती नागिन-सी वह काली रात… जैसे अंधेरे का दरिया बह निकला हो। चारों तरफ तिलचट्टे, झींगुर और दूसरे कीट-पतंगों की आवाजें साफ-साफ सुनाई पड़ने लगी। एक सधी हुई गति-यति और स्वर-ताल में जैसी बारी-बारी अपने आलाप को प्रस्तुत करने का समझौता इन कीट-पतंगों ने आपस में कर रखा हो। एक के बाद दूसरा स्वर… बीच-बीच में तीसरे-चैथे स्वरों का मिश्रण… जो रात के उस संगीत आज भी कानों में गूंज उठता है। उजाले की तरह अंधेरा भी अपनी पहचान दे जाता है। कभी निहालाराम की आवाज उस अंधेंरे में उजाले की दस्तक का काम कर जाती।
’ऐसी रात कभी देखी है तुमने?’ … उसने पूछा।
उसके प्रश्न का कोई उत्तर देते न बना। रात और उसके विषम संगीत ने मेरे उत्साह को प्रायः समाप्त ही कर दिया था। मेरी आंखों के पटल पर हरे रंग के दो सांप उभर आते और मैं सहम कर अपने आजू-बाजू देखने लगता। मुझे लगता कि मेरे आस-पास बिखरी सूखी घास पर कोई चीज सरसराने लगी है। कीट-पतंगों की किट्-किट्… तिलचट्टों की चट्-चट् और… छोटे बड़े छेदों के बीच किर्रर्र कूं… किर्रर्र कूं… की कर्ण-कठोर ध्वनि मन की गहराइयों तक उतरने लगी।
निहालाराम के स्वर ने फिर दस्तक दी, ’सोच क्या रहे हो, अब सो जाओ। मैं तो जल्दी सो जाता हूं।’ वह पैरों से सिर तक कम्बल ओढ़ कर लेट गया। लेटने के पहले मैंने भी अपने चारों तरफ नजरें दौड़ाई। फासले पर सुलगती लकड़ियों की आंच में जितना दिखाई दिया वह यही कि वहां चारों तरफ छेद ही छेद खुले पड़े हैं। जाने इन छेदों में क्या भरा हो। देर तक मैं यही सोचना रहा। उस जगह बेखबर लेट जाना खतरे से खाली नहीं लग रहा था। लेकिन करता क्या?… कितनी देर यूं ही बैठा रहा जा सकता है। थोड़ी देर बाद मैंने सिर पैरों तक कसकर कम्बल को लपेट लिया, ताकि कीट-पंतग कोई मुझ तक न पहुंच पाए।
निर्भय रहने के करण निहालाराम को लेटते ही नींद आ गई। वह जोर-जोर से खर्राटे भरने लगा, किन्तु उस हालत में मेरे लिए पलक झपकना भी मुश्किल लग रहा था। बार-बार मुंह से कम्बल हटाकर उन छेदों की तरफ ताक-झांक करना जरूरी लगता था। कभी उठकर पैरों की तरफ बने हुए बड़े छेद की तरफ झांकता। मुझे लगता कि सब तरफ छोटे-बड़े छेदों से तरह-तरह के जानवर एक साथ मुझ पर झपटने की तैयारी में बैठे हैं।
आधी रात गए पलकें आंखों पर झुकने लगी, किन्तु भय और आतंक जहां बैठा हो, वहां नींद का क्या काम।… घड़ी में देखा, रात की तीन बज चुके हैं। आधी रात के बाद ठंड भी तेज हो गई। मैंने उठकर दोनों लकड़ियों का मुख जोड़ दिया। तिनके उठाकर बीच में डालते ही लपटें उठने लगी। सोचा, निहालाराम को जगा दूं, वह बहुत सो चुका। इसके उठ जाने पर ही थोड़ी-बहुत नींद ले पाना सम्भव हो सकता है।
मेरी एक आवाज पर वह भी जग गया। पूछा, ’क्या वक्त हुआ है?’
’छः बज गए।’ मैंने कहा, ’अब उठ जाओ, उठकर पहले हुक्का-चिलम… और बाद में चाय बनाना। इतनी देर मैं एक झपकी ले लूं।’ निहालाराम को उधर लगाकर मैंने कम्बल लपेट लिया। सुबह जब ठीक छः बज रहे थे तभी आंख खुली।
निहालाराम अब तक कई बार हुक्का भर चुका था। चाय भी तैयार कर उसने रख दी थी। मेरी ओर देखकर वह हंस पड़ा। बोला, ’आधी रात में मुझे जगा दिया तुमने… जानता हूं, नींद नहीं आई होगी।’