देवेश जोशी
भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य, पूर्व अध्यक्ष बदरी-केदार मंदिर समिति, नगर पालिका गोपेश्वर के संस्थापक अध्यक्ष, वरिष्ठ पत्रकार, समाजसेवी बड़े भ्राता अनुसूया प्रसाद भट्ट जी के निधन का समाचार अत्यंत दु:खद है। ये उनके व्यक्तित्व की विशालता ही थी कि दूसरे दल के बड़े नेता और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत जी भी क्षेत्र भ्रमण के दौरान उनके आवास पर रात्रि विश्राम करते हैं।
बड़े भ्राता से मेरे परिचय का भी रोचक किस्सा है। मुझे गोपेश्वर नगर में आये हुए दो-तीन ही साल हुए थे। नगर के संभ्रांत लोगों से सीधा परिचय नहीं था। नेता लोगों से परिचय का तो न कोई सूत्र था और न ही रुचि। भट्ट जी तब लोकप्रिय नगरपालिका अध्यक्ष थे। काया के साथ उनका व्यक्तित्व भी विशाल था। हँसमुख और मिलनसार भी थे। जो लोग उनके करीब खड़े होकर बात कर रहे होते, उन्हें देखकर मैं सोचता, काश! मुझे भी कभी ऐसा मौका मिलता।
कोई काम था, जिसके सम्बंध में शुभचिन्तकों की राय थी कि कोई नेताजी पत्र लिख दें, तो हो सकता है, वरना कौन पूछता है। दिमाग़ पर बहुत जोर देकर भी किसी नेता से परिचय का कोई सूत्र हाथ नहीं आया। जब ये मान लिया था कि ये रास्ता बंद ही समझो तो अचानक ही खयाल आया कि पिताजी ने एक दिन कहा था कि कभी कोई कठिन समस्या हो तो रमेश पहाड़ी से मिल लेना। पहाड़ी जी जिले के प्रतिष्ठित पत्रकार थे और आज प्रदेश के प्रखर पत्रकारों में गिने जाते हैं। उनकी प्रतिभा पिताजी ने शायद उनके छात्र रहते ही पहचान ली थी। वरना उनके बहुत से पूर्व छात्र उच्चाधिकारी भी थे।

अगले दिन मुझे जैसे ही पहाड़ी जी दिखे, मैंने प्रणाम कर अपना परिचय दिया और साथ ही ये भी कह दिया कि आपके साथ मुझे अनसूया प्रसाद भट्ट जी से मिलने चलना है। पहाड़ी जी की छवि तब भी मूल्यों की पत्रकारिता करने वाले, ईमानदार, निष्पक्ष और बेबाक पत्रकार की थी जिसमें उत्तरोतर वृद्धि ही होती जा रही है। उन्होंने एक झटके में पल्ला छुड़ाते हुए कहा कि नेताओं के आगे सिफारिश लेकर जाना मेरी फ़ितरत नहीं है। इस मामले में मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। मैं निराश होकर लौट गया पर एक बार और प्रयास करने का संकल्प भी कर लिया। अगले दिन मैंने फिर पहाड़ी जी की राह रोक ली। इस बार मैंने भावनास्त्र का प्रयोग किया। कहा कि आप सोचिए, पिताजी ने कितने विश्वास से सैकड़ों पूर्व छात्रों में से आपका नाम लिया था, और आप……। भावनास्त्र ने काम किया और जरा देर सोचकर उन्होंने कहा, ठीक है अगले इतवार को उनके आवास पर चलेंगे। लेकिन शर्त ये है कि काम के सम्बन्ध में मैं कुछ नहीं कहूंगा। मैने खुशी-खुशी शर्त मान ली और धन्यवाद कह कर इतवार का इंतज़ार करने लगा। जिल़े के किसी भी जनप्रतिनिधि से मेरी ये पहली मुलाक़ात होने वाली थी।
अगले इतवार को मैं पहाड़ी जी के साथ, गोपेश्वर गाँव स्थित भट्टजी के आवास पर गया। पधानजी के नाम से लोकप्रिय भट्टजी ने पहाड़ीजी का गर्मजोशी से स्वागत किया। चाय पीते हुए पहाड़ीजी ने मेरा परिचय कराया – ये गुगली के जोशी हैं…..। विलक्षण स्मृति के धनी भट्टजी वाक्य पूरा होने से पहले ही बोले – गुगली के गीताराम जोशीजी हमारे गुरूजी रहे हैं, यहीं गोपेश्वर इंटर काॅलेज में। पहाड़ीजी ने इस पर तुरंत जोड़ा कि ये उन्हीं का बेटा है। उन्होंने फिर मुझे गौर से देखकर कहा, अरे हाँ सूरत भी मिल रही है। आगे का पूरा वार्तालाप गढ़वाली में हुआ। कहते हैं कि व्यक्ति जब भावावेश में होता है तो दुदबोली में ही अपने को सहज पाता है। वार्तालाप भी क्या था, वो वक्ता थे और हम दोनों श्रोता। जो उन्होंने कहा और हमने सुना, उसका सार कुछ इस तरह है।
गोपीनाथ मंदिर के ठीक पीछे वाली कोठरी में रहते थे गुरूजी। अंग्रेजी पढ़ाते थे तो उनके सम्पर्क में रहने की होड़ रहती थी, हम विद्यार्थियों में। उस जमाने में अंग्रेजी का शिक्षक इस धरती का जीव नहीं लगता था। पानी वैतरणी के धारे से लाना होता था और गुरूजी के लिए एक बाल्टी पानी लाना मैंने अपना नित्यकर्म बना लिया था। गुरूजी सुबह जल्दी उठ जाते थे। एक दिन मैंने देखा कि गुरूजी की कोठरी के द्वार बंद हैं। मैंने द्वार खोले तो देखा कि गुरूजी बिस्तर पर लेटे हैं। मैंने पूछा, गुरूजी तबीयत ठीक है…..तो बोले रात से तेज बुखार है। शायद शीतप्रकोप है। मैंने गुरूजी के माथे पर हाथ रखा, उनके चेहरे और गले को गौर से देखा और कहा – गुरूजी आपको दादरा हो गया है। गुरूजी ने असहमति में सर हिलाकर कहा, वो तो बच्चों को होता है। मैंने पूछा, क्या आपको बचपन में हुआ था तो गुरूजी ने कहा, मेरी जानकारी में तो नहीं हुआ था। इस पर मैंने कहा, तब तो पक्का दादरा (खसरा, measles) है गुरूजी, एक बार सबको होता है। अब गुरूजी घबरा गये, बोले अब क्या होगा अनसूया…….। तुम्हीं को दवा लानी पड़ेगी।
हमें ये बताते हुए भट्टजी के चेहरे पर चमक आ गयी थी कि उन्होंने कहा कि दवा तो गुरूजी दादरे की एक ही है। पर वो खानी नहीं निकालनी पड़ती है। इस पर गुरूजी ने आँखों के इशारे से पूछा कि वो क्या है, तो मैंने कहा – तुर्की गुरूजी, तुर्की निकालनी पड़ेगी। उसके साथ ही दादरा जाता है। मेरा आत्मविश्वास देखकर गुरूजी ने कहा – जो भी करके ये बुखार उतर जाए, वैसा कर लो। फिर मैं गुरूजी के लिए वैद्य बन गया। मेरे आदेश का गुरूजी बच्चे की तरह पालन करने लगे। बहुत मेहनत लगी पर मैं भी गुरूजी की तुर्की निकाल के ही रहा। दो दिन लगे। तुर्की के साथ बुखार भी उतरने लगा। एक-दो दिन बाद गुरूजी फिर से स्कूल भी आने लगे। गुरूजी सबसे कहते कि अगर अनसूया सही समय पर नहीं बताता तो दादरा बिगड़ भी सकता था। बिगड़े हुए दादरे का मतलब पहाड़ में तब जीवन से हाथ धोने के समान होता था।
भट्टजी किस्साग़ो भी कमाल के थे। दो-दो घंटे खड़े-खड़े किस्से पर किस्सा सुना सकते थे। उनकी किस्साग़ोई पर विराम लगाते हुए, पहाड़ीजी ने कहा, अच्छा पधानजी इस समय चलते हैं। मुझे तब ध्यान आया कि मैं तो किसी काम से आया था पर दादरे और तुर्की की कहानी के प्रभाव में मुझसे कुछ कहा नहीं गया। एक पत्र जो मैं घर से ही लिख कर लाया था, उन्हें पकड़ा कर मैं पहाड़ीजी के साथ उनके आवास से बाहर निकल गया। बाहर आते हुए, उन्होंने ही कहा, अरे भाई जोशी, गुरुभाई हो तुम मेरे। कभी मेरे स्तर का कोई काम हो तो निस्संकोच कहना। पता नहीं क्यों, मैं ये भी नहीं कह पाया कि काम तो आज ही है। पहली मुलाक़ात में ही उनसे जो आत्मीय परिचय हुआ था, उसके आगे किसी काम का कोई महत्व नहीं रह गया था।
गोपेश्वर के लम्बे प्रवास के दौरान मैं जब भी भट्टजी से मिलता, सदैव उन्हें पिता के जीवनरक्षक के रूप में देखता। मुझे वे हमेशा गुरुभाई के रूप में मान देते। सच्चे मन के स्वामी, लोकप्रिय जनप्रतिनिधि, धर्मनिष्ठ आचरण के समाजसेवी-पत्रकार, मिलनसार व्यक्तित्व के धनी श्रद्धेय अनसूया प्रसाद भट्टजी की आत्मा को गोपीनाथजी-रुद्रनाथजी अपने समीप स्थान दे, शोकाकुल परिजनों को शक्ति-सांत्वना प्रदान करे। भट्टजी की आत्मा और आचरण हमें प्रेरणा देते रहें।